Friday, February 9, 2018

अमेरिका में मजदूरी बढ़ी, तो गिरे शेयर बाजार

अमेरिकी श्रम विभाग ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक 2017 के अंतिम 3 महीनों के दौरान अमेरिका में निजी क्षेत्र की मजदूरी और वेतन 2.8 प्रतिशत बढ़ी, जो एक साल पहले की तुलना में मंदी के बाद सबसे तेजी वृद्धि है। हालांकि यह खुशी की बात होनी चाहिए थी, लेकिन दुनियाभर के शेयर बाजारों में गिरावट शुरू होने की सबसे बड़ी वजह यही रही क्योंकि आशंका है कि बढ़ती हुई मजदूरी के कारण महंगाई और बढ़ जाएगी जो पहले से ज्यादा है। यहां गौर करने वाली बात है कि शेयर बाजार को पूंजी बाजार भी कहा जाता है, जिसे लोगों की मजदूरी बढ़ना इतना खल गई। इस घटना से पूंजीवाद को समझना थोड़ा आसान हो जाएगा।
अमेरिका में महंगाई बढ़ने का एक मतलब यह भी है कि फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ा सकता है। ऐसी स्थिति में डॉलर महंगा हो जाएगा, जो पूंजी बाजार कतई नहीं चाहेगा।

-भीम सिंह, नई दुनिया



Sunday, December 23, 2012

रेकॉर्ड्स अधूरे हैं सचिन!

तुमने वनडे को अलविदा क्यों कह दिया, सचिन! अभी तो तुम्हें अनगिनत काम करने थे। तुम एक और शतक बना देते तो शतकों की संख्या 50 हो जाती...20 हजार रन बनाने से भी तुम चूक गए! कुछ दिन और संयम रखते तो 500 वनडे भी खेल ही लेते और "मैन ऑफ द मैच" पाने का सैकड़ा भी पूरा कर लेते। मुझे पूरा यकीन है कि तुम इन सब तक पहुंच सकते थे। बड़े आराम से।


तुमने 23 साल तक हिम्मत दिखाई, लेकिन आखिर में तुम किससे डर गए! तुम्हारा कद तो खेल से भी बड़ा है न! संन्यास नहीं लेते, तो हो सकता था कि तुम दूसरा दोहरा शतक भी लगा देते! तुम्हारे नाम के आगे बस एक दोहरा शतक नहीं जमता। बहुत खेल बचा था तुम्हारे अंदर!

खेल बचा था, तभी तो तुम अब भी टेस्ट में उतरने के लिए तैयार हो। इसमें तुम अब कोई चूक मत करना....शतक पे शतक ठोकते जाना! हम इसमें का एक शतक वनडे वाले में जोड़कर पचासा पूरा कर देंगे! तुम रुक जाना.....टेस्ट से संन्यास मत लेना.........बीसीसीआई के पास कम से कम प्लेइंग इलेवन का आजीवन सदस्य बनाने का विकल्प तो बचा रहे! तुम्हारे साथ धोखा तो न होगा। संगठन इक्का-दुक्का को ही क्यों बचाए भला। उसे पहली गलती सुधारने का तुम मौका जरूर देना!

Friday, November 30, 2012

केंद्र की पंगु करने वाली नीतियां

यूपीए सरकार की कुछ नीतियों से मैं अचंभित हूं। देश की अर्थव्यवस्था और आम
लोगों की परेशानियां समझने वाले ज्यादातर लोगों की यही स्थिति होगी
क्योंकि केंद्र सरकार पिछले तकरीबन 8 वर्षों से जिस तरह की नीतियां लागू
कर रही है, उनकी वजह से जनता का भविष्य उतरोत्तर भयावह होता जा रहा है,
लेकिन लोग इसका अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं।

मेरी हताशा इस बात को लेकर है कि मनमोहन सरकार यदि इसी तरीके से अपना परोक्ष एजेंडा लागू करती रही
तो किसानों के साथ-साथ उन तमाम लोगों की जिंदगी भी दुभर हो जाएगी जो
जीवनयापन के लिए एक हद तक रोज की आमदनी पर निर्भर रहते हैं। जाहिर है,
जैसे-जैसे समस्या की गंभीरता बढ़ती जाएगी, उसी हिसाब से आत्महत्या और
अपराध जैसी सामाजिक बुराइयों की जड़ें भी गहरी होती जाएंगी।
जरा गौर कीजिए, किसानों का कर्ज माफ किया जाना, स्कूलों में दोपहर का
भोजन उपलब्ध कराना (जबकि पर्याप्त तादाद में अच्छे शिक्षकों की जरूरत
ज्यादा है), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना और अब नकद
सब्सिडी की व्यवस्था... ये सारी नीतियां देश की गरीब जनता को फौरी राहत
तो पहुंचा रही हैं, लेकिन इनके नतीजे भयावह होंगे और हो भी रहे हैं। असल
में लोगों को फौरी राहत देने के इन तमाम उपायों की असली मंशा चुनावी
रणनीति में अपना पलड़ा भारी करना और असली एवं बड़े मुद्दों से मतदाताओं
का ध्यान भटकाना भर है। भारतीय अर्थव्यवस्था की संवेदनशीलता और
अर्थशास्त्र के तमाम बुनियादी सिद्घांत इस तरह की नीतियों के खिलाफ हैं।
मसलन, मनचाहा खिलौने देकर बच्चों को खुश तो किया जा सकता है, लेकिन उनका
बेहतर भविष्य सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार फिलहाल आम जनता
के साथ यही कर रही है।

सरकार देश में उस नीति को जल्द-से-जल्द लागू करने पर आमादा है, जिसके तहत
गरीबों को ऐसी कई चीजों पर मिलने वाली सरकारी रियायत के लिए सीधे नकद रकम
(कैश सब्सिडी) मुहैया कराई जाएगी, जो उनके रोजमर्रा के जीवन के लिए
आवश्यक होती हैं। राशन, किरोसीन, खाद, चीनी और रसोई गैस ऐसी ही चीजें
हैं। अब जरा सोचिए जरूरतमंद लोगों को राशन यानी अनाज की आपूर्ति
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से की जाती है। इस तरीके से
बांटे जाने वाले राशन का भाव बाजार भाव से कम होता है क्योंकि सरकार की
तरफ से सब्सिडी दी जाती है। यदि जरूरतमंद लोगों को यह सब्सिडी नकद दे दी
जाएगी तो पीडीएस की जरूरत ही खत्म हो जाएगी। इस मामले में सरकार का तर्क
है कि पीडीएस में इस कदर खामियां हैं कि लाभार्थियों को इस योजना का पूरा
लाभ नहीं मिलता। सरकार तो अपनी तरफ से पर्याप्त खर्च करती है, लेकिन
गरीबों का ज्यादातर हिस्सा नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी और इस पूरी प्रणाली
में भागीदार अन्य लोग खा जाते हैं। तो जरूरत इस बात की थी कि इस लचर
प्रणाली की खामियां दूर की जाएं, जो असंभव तो नहीं है, लेकिन इसके लिए
राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कौशल की जरूरत होगी। लेकिन इसका त्वरित
हल निकालने के लिए जो उपाय किया जा रहा है, उससे यदि पीडीएस खत्म हो जाता
है, तो किसानों के ऊपज की सरकारी खरीद की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। ऐसे
में किसान अपनी ऊपज बेचने के लिए पूरी तरह बाजार के रहमोकरम पर निर्भर हो
जाएंगे और बाजार की फितरत क्या होती है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।

दूसरी तरफ,

मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक सरकार नकद सब्सिडी के तौर
पर गरीबों के खाते में 35,000-40,000 रुपये डाल देगी। जिस तबके के लिए यह
इंतजाम किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्होंने एक साथ
इतनी बड़ी रकम देखी ही नहीं है। ऐसे में वे इस पैसे का इस्तेमाल ऐसे काम
में कर लेंगे, जो शायद उनके लिए गैर-जरूरी हो। इंसान की सहज प्रवृत्ति को
देखते हुए इस बात की पूरी आशंका है कि यह रकम कुछ ही महीनों के दौरान कुछ
जरूरी चीजों के साथ-साथ ऐसे कार्यों में खर्च कर दी जाएगी जिसकी ज्यादा
जरूरत ही न हो, जबकि यह रकम पूरे साल के लिए होगी। अब सवाल उठता है कि
थोड़े दिनों में सरकार की तरफ से मिले पैसे खर्च हो जाने के बाद साल के
बाकी बचे महीनों में उनका गुजारा कैसे चलेगा क्योंकि घर-परिवार के लिए
जरूरी चीजों और सेवाओं पर सरकार रियायत नहीं मिलेगी और सभी चीजों के लिए
बाजार पर निर्भर रहना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में ज्यादातर परिवार गहरे
वित्तीय संकट में फंस जाएंगे।

पिछले आम चुनावों से पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील
गठबंधन ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना शुरू की थी,
जिसका निहितार्थ हासिल करने में उसे सफलता भी मिली। लेनिक इसे किसी भी
नजरिये से परिपक्व और तर्कसंगत योजना नहीं कहा जा सकता। परिवार के एक
सदस्य को केवल 100 दिनों का रोजगार और मजदूरी इतनी की केवल एक ही आदमी का
गुजारा चल सके। अब इस सवाल का जवाब कौन देगा कि बाकी के 265 दिन ऐसे
मजदूर क्या करेंगे और परिवार के अन्य सदस्यों की रोजी-रोटी की व्यवस्था
कैसे होगी।

असल में यह योजना गांव के भूखे-नंगों को शहर आने से रोकने और उनके असंतोष
को कम करने का एक सतही तरीका भर है। इस योजना की वजह से गांव के लोग बाहर
जाने के विकल्प पर कम गौर करते हैं और इतना ही कमाते हैं कि किसी तरह
उनका पेट भर सके। जीने के लिए बाकी जरूरतों की चिंता उन्हें जीवन भर खुद
ही करनी है। जाहिर है, ऐसे में उन्हें कुछ सोचने-समझने की फुर्सत ही नहीं
मिलेगी। उनके लिए हर दिन का एक-एक क्षण जिंदा रहने के उपाय करने में बीत
जाएगा। अपने अधिकारों पर गौर करने, परेशानियों और अभाव के लिए कौन
जिम्मेदार है? इस सवाल का जवाब तलाशने और तरक्की जैसे मसलों पर आपस में
चर्चा करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। जाहिर है, सरकार ने इस योजना
के माध्यम से लोगों को इतनी बड़ी उलझन में डाल रखा है कि देश में बदलाव
और बेहतरी के लिए किसी तरह के आंदोलन या क्रांति की गुंजाइश ही नहीं रह
गई है क्योंकि कड़ी मेहनत करने के बाद पेट भर जाए तो गहरी नींद आ जाती
है।

मनमोहन सिंह की टीम ने कुछ साल पहले एक और क्रांतिकारी फैसला किया था,
जिसकी बदौलत उसे खूब वाहवाही भी मिली थी। किसानों का कर्ज माफ करने के
लिए सरकारी खजाना खोल दिया गया था और किसान कर्जमुक्त होकर गदगद हो गए
थे। यदि सरकार का यह फैसला सही होता तो देश में किसानों की आत्महत्या का
सिलसिला थम जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि इस तरह का तरीका
अपनाने से किसी भी समस्या का हल निकल ही नहीं सकता। भिखारी को भीख दे
देने से यह सामाजिक बुराई खत्म हो जाएगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा
सकती। इस बीमारी का हल तो तब निकलेगा, जब इसके मूल कारणों की तलाश करके
उसका स्थायी निवारण किया जाए।

हां तो, किसानों का कर्ज माफ करने का दोतरफा असर हुआ। पहले किसान कर्ज
लेने से पहले कई चीजों पर गौर करते थे। मसलन, उन्हें वास्तव में कर्ज
लेने की जरूरत है या नहीं, वे समय पर कर्ज चुका पाएंगे या नहीं और यह कि
जिस काम के लिए कर्ज लिया जा रहा है उसका इस्तेमाल निश्चित रूप से उसी
काम के लिए करना है। बैंक भी उन्हें कर्ज देने से पहले कर्ज वापसी की
संभावनाएं खंगाल लेते थे। लेकिन सरकार की ओर से किसानों का कर्ज माफ कर
दिए जाने के बाद इस तरह के कर्ज लेने और देने की प्रवृत्ति बढ़ गई। लोगों
को लगने लगा कि सरकार उनका कर्ज एक बार फिर माफ कर देगी और बैंक तो
उन्हें कर्ज देने से औपचारिक तौर पर मना कर ही नहीं सकते। नतीजतन कई ऐसे
किसान भी भारी कर्ज के बोझ तले डूबते जा रहे हैं, जो इस परेशानी से बच
सकते थे और बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्तियों में लगातार इजाफा होता जा
रहा है। इसकी सबसे बड़ी नजीर भारतीय स्टेट बैंक है, जिसकी देश के तमाम
इलाकों में व्यापक पहुंच है। मामले की गंभीरता पर गौर करने के लिए इस
बैंक की नवीनतम बैलेंस शीट देखी जा सकती है।

असल में किसानों का कर्ज माफ करने, मनरेगा और अब नकद सब्सिडी (खबरें हैं
कि इस योजना पर सरकार को सालाना तकरीबन सवा तीन लाख करोड़ रुपये खर्च
करने होंगे) जैसी योजनाओं पर सरकार जितना खर्च कर रही है यदि उसका
इस्तेमाल बढिय़ा शिक्षा की व्यवस्था, जरूरी बुनियादी ढांचे का इंतजाम और
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ किसानों को खाद, बीज और खेती के लिए
जरूरी उपकरण मुहैया करने में किया जाता तो वास्तव में देश की तस्वीर बदल
सकती थी। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सरकार की यह बुनियादी जिम्मेदारी भी
होती है, जिसे हमारी सरकारें निभाना ही नहीं चाहतीं। उन्हें तो जनता को
सक्षम बनाने से बेहतर उन्हें निर्भर बनाना लगता है क्योंकि सत्ता में बने
रहने का यही सबसे सरल तरीका है।

आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? असल में मैं आसमान की
तरफ सर उठाकर तारे देखने की कोशिश कर रहा हूं, यह जानते हुए कि सितारे
दिन में नजर नहीं आते।

-भीम सिंह (सीनियर सब एडिटर, बिज़नेस स्टैण्डर्ड)

Tuesday, October 30, 2012

डगमगाते मनमोहन और यूपीए -2

मेरे एक करीबी दोस्त का कहना है कि इस दुनिया में जुगाड़ और खेमेबाजी की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। पहले मैं उसके इस नजरिये से इत्तेफाक नहीं रखता था, लेकिन अब कम-से-कम अपने देश में तो इसके कई नजीर हैं। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान मैंने एक छोटा सा उपन्यास पढ़ा था, उसका नाम तो याद नहीं है, लेकिन शायद कहानी किसी लातिन अमेरिकी देश से संबंधित थी। वहां एक राजा था, जिसके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों की करगुजारियों की वजह से राज्य प्रशासन की बड़ी बदनामी हो रही थी। लिहाजा राजा पर उन्हें हटाने का दबाव बढ़ रहा था। लेकिन उसे लग रहा था कि यदि वह इस दबाव के अनुरूप अपने कुछ सिपहसालारों को बाहर का रास्ता दिखा देता है, तो राज्य प्रशासन में खामी की पुष्टिï हो जाएगी और सत्ता विरोधी खेमे का मनोबल भी बढ़ जाएगा। इस चलते उसने अपने विरोधियों के मंसूबों पर पानी फेरने के उद्देश्य से मंत्रिमंडल के उन सदस्यों को पदोन्नति दे दी, जिन पर भ्रष्टाचार के सबसे गंभीर आरोप लगे थे और उन सदस्यों का ओहदा घटा दिया, जो अपेक्षाकृत ईमानदारी से काम कर रहे थे। इसका असर यह हुआ कि सत्ता में हिस्सेदारी रखने वाले भ्रष्ट लोगों का मनोबल बढ़ गया और जनता के बीच स्वस्थ छवि वाले लोग बड़े आहत हुए। जाहिर है, जनता भी निराशा में डूब गई। समस्या की गंभीरता यहीं खत्म नहीं हुई। सत्ता के भ्रष्टï तबके का साहस इस कदर बढ़ गया कि वह सारे नियम-कायदों को ताक पर रखकर मनमानी करते हुए जनता पर कहर ढाने लगे। नतीजतन जनता के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने विद्रोह कर दिया। फिर क्या था, सत्ताधारी खेमा बिखर गया और अंतत: राजा की हत्या कर दी गई। अपने देश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उसी राह पर चलते हुए नजर आ रहे हैं। हालांकि जिस कहानी का जिक्र मैंने किया है, उसकी पृष्ठभूमि तकरीबन 200 साल पुरानी है, इसलिए उस तरह के हादसे की आशंका नहीं है, जैसा कि उस दौरान हुआ था। फिर भी नतीजे की तस्वीर अलग हो सकती है, लेकिन इन चीजों का थोड़ा-बहुत असर तो होगा ही। मनमोहन सिंह ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करते हुए कुछ नये चेहरों को कैबिनेट का हिस्सा बनाया, जिस पर ज्यादा बहस की जरूरत नहीं है। जो चीज खल रही है, वह यह कि उन्होंने एस जयपाल रेड्डïी का ओहदा घटाते हुए उन्हें पेट्रोलियम मंत्रालय से हटा दिया और सलमान खुर्शीद का ओहदा बढ़ाते हुए उन्हें विदेश मंत्री बना दिया। प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल में फेरबदल करने का विशेष अधिकार होता है और अक्सर उनके इस तरह के फैसलों के बारे में सवाल नहीं किए जाते। लेकिन यदि कुछ अप्रत्याशित होता है, तो संबंधित फैसले के आधार पर सवाल उठने ही चाहिए, जैसा कि मीडिया के एक धड़े ने किया है। अंग्रेजी दैनिक 'द हिंदू' ने लिखा है कि चूंकि जयपाल रेड्डी ने गैस की कीमत बढ़ाए जाने और कृष्णा-गोदावरी तेल-गैस क्षेत्र से उत्पादन घटाने के मसले पर मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज की लगाम कसी, लिहाजा प्रधानमंत्री ने उन्हें दंडित किया। मुझे याद है कि पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के साथ भी ऐसा ही किया गया था। हालांकि पर्यावरण मंत्रालय से हटाकर उन्हें जो नया विभाग सौंपा गया, वह किसी भी लिहाज से कम महत्त्वपूर्ण तो नहीं है, लेकिन उस विभाग का कॉरपोरेट जगत से कोई सीधा लेनादेना भी नहीं है। पर्यावरण मंत्री रहते हुए रमेश ने उन कंपनियों पर नकेल कसने की कोशिश की थी, जो सभी कानूनों को ताक पर रखते हुए मनमाने तरीके से पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे थे। ये दोनों ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे जाहिर होता है कि मंत्रिमंडल के ढांचे का निर्णय लेते समय कॉरपोरेट जगत की जरूरतों और पेरशानियों का बहुत खयाल रखा जाने लगा है या यूं कहें कि कॉरपोरेट खेमा अब इस कदर प्रभावशाली हो गया है कि वह अपने पसंद की हस्ती को ऐसा ओहदा दिलाने की कूबत रखता है, जिससे उसके लिए आगे की राह आसान हो सके। ये तो थोड़ा तार्किक तरीके से काम करने वाले मंत्रियों को दंडित करने के उदाहरण हैं। अब जरा, सलमान खुर्शीद साहब पर गौर करें, जिनका ओहदा बढ़ाया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता से राजनेता बने अरविंद केजरीवाल और मीडिया की तरफ से आरोप लगाया गया था कि खुर्शीद और उनकी पत्नी की ओर से संचालित एक गैर-सरकारी संगठन ने विकलांगों के हित में काम करने के लिए सरकार से पैसे लिए, जिसके इस्तेमाल में व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार किया गया। केजरीवाल और मीडिया ने कई ऐसे साक्ष्य पेश किए, जिन पर संदेह नहीं किया जा सकता और कई जांच एजेंसियों ने भी इस घपले पर मुहर लगाई है। लेकिन प्रधानमंत्री की नजर में खुर्शीद पाक-साफ हैं, लिहाजा वह अंतरराष्ट्रीय फलक पर देश की छवि चमकाने की काबलियत रखते हैं। हो सकता है कि रमेश, रेड्डी और खुर्शीद का मामला इतना सरल न हो कि आम जनता को समझ में आए और जिन्हें ये चीजें समझ में आती हैं वे मतदान करने के लिए घर से नहीं निकलते, इसलिए वोट बैंक के स्तर पर मौजूदा सरकार को इन चीजों से नकुसान होता हुआ न दिखे। लेकिन अब एक ऐसा वर्ग भी सक्रिय हो रहा है, जो बड़े सरल तरीके से लोगों को मनमोहन ऐंड कंपनी की करगुजारियों से वाकिफ करा रहा है। एक पत्रिका के संपादकीय में कहा गया है कि केंद्र की मौजूदा सरकार यह मानकर चल रही है कि अगले आम चुनाव में उसका पत्ता साफ होने वाला है, इसलिए वह तमाम ऐसे काम निपटाने की जल्दी में है जो उसके परोक्ष एजेंडे में शामिल है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के हालिया विस्तार में
प्रधानमंत्री ने जो हठधर्मिता दिखाई है, उसकी एक वजह यह भी हो सकती है। अमेरिका के साथ परमाणु करार करते समय भी उनका रुख ऐसा ही था। -(भीम सिंह)

Thursday, June 9, 2011

किसकी है यह सरकार?


४ जून की घटना के कई मायने हैं. कुछ चीजें सामने आ गई हैं, कुछ परदे के पीछे हैं. यहाँ मैं कुछ छुए और कुछ बिलकुल अनछुए पहलुओं पर चर्चा करना चाहूँगा. जहाँ तक सरकार और उसके मंत्रियों का सवाल है, यह साफ़ दिख रहा है कि सत्तापक्ष में दो धड़े हो चुके हैं. एक धड़ा लोकतान्त्रिक मूल्यों और मानवातावादी मूल्यों का पोषक है, तो दूसरा सत्ता, शक्ति के नशे में चूर होकर मदमस्त, अँधा और तानाशाह बन चुका है. पहला धड़ा गांधीवादी, भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का समर्थक है, तो दूसरा धड़ा पाश्चात्य सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक विचारधारा का समर्थक ही नहीं बल्कि हर कीमत पर उसे भारत पर थोपने के लिए लालायित है. पर कुल मिलाकर संख्या में ज्यादा कौन है, यह कहना मुश्किल है. पर यह साफ़ हो चुका है कि तानाशाह धड़ा सरकार की नीतियों और महत्वपूर्ण निर्णयों पर जरूर भारी पड़ रहा है. उदारवादी धड़ा पता नहीं किस मजबूरी में हर गलत कदम को चुपचाप सहन कर रहा है. शायद सत्य का साथ देने की अपेक्षा सत्ता का साथ देना ज्यादा सुगम लग रहा है.

विरोध और विचारों पर चर्चा प्रजातंत्र को शक्ति प्रदान करने वाले प्रेरणा स्रोत हैं. चाहे वह सरकार को चलाने वाली पार्टी के अन्दर हो या विरोधी पक्ष की तरफ से हो. प्रश्न यह है की देश, उसके लोग, देश का भविष्य ज्यादा महत्वपूर्ण है या सरकार, सरकार में सम्मिलित दल, सरकार में सम्मिलित दलों के नेता और उनके निजी हित? सरकार के किसी भी कदम से अगर देश और देश के लोगों को नुक्सान होता है, तो विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ताधारी पार्टी की तरफ से भी सरकार के कदम की निंदा होनी चाहिए. सरकार में सम्मिलित दल के किसी नेता के किसी कर्म से अगर देश का अहित होता है तो वह सबके लिए सर्वथा निंदनीय होना चाहिए. अगर सरकार के आदेश पर पुलिस ने कुछ अमानवीय कृत्य किया है, तो उसकी निष्पक्ष जांच की मांग भी राजनेताओं को दल और विचारधारा के भेदभाव को परे रखकर करना चाहिए. पर दुर्भाग्य की बात है, एक भी सत्ताधारी दल के नेता ने पुलिस के कृत्य की निंदा नहीं की और ना ही अमानवीय कृत्यों के लिए दोषी पुलिस अधिकारियों का पता लगा कर कारवाई की मांग की. उल्टा कारवाई को सही ठहराया. ऐसा तो किसी तानाशाह ने भी नहीं किया होगा. क्योंकि शांतिपूर्ण अनशन करनेवाले लोग ना तो सत्ता परिवर्तन की बात कर रहे थे, ना ही स्वयं के लिए कुछ सरकार से सुविधा मांग रहे थे. वे तो सरकार से ऐसे कड़े कदम उठाने और कड़े क़ानून बनाने की मांग कर रहे थे जो देशहित में था और बहुत वर्षों पहले ही हो जाना चाहिए था.

अब चर्चा करें मीडिया की. मीडिया को निष्पक्ष, निडर और निष्कलंक होना चाहिए. पर मीडिया का रुख हवा के रुख के साथ बदलता दीखता है. मीडिया तार्किक समीक्षा, निष्पक्ष विचार और वस्तुस्थिति के सही आकलन के बजाय सनसनी फैलाकर टी आर पी बढाने के उद्देश्य से प्रेरित दीखती है. साथ ही जहां मीडिया सरकार के आगे भीगी बिल्ली बनी नजर आती है, अमूमन सरकार की गलतियों पर सरकारी अधिकारियों और सत्ताधारी दलों के नेताओं से कठोर प्रश्न नहीं पूछती. दूसरी तरफ सरकार का विरोध करनेवालों से उल जलूल, अतार्किक प्रश्न करती दीखती है. कभी कभी ऐसा लगा जैसे "न्यायाधीश" की भूमिका में आकर विरोधी के विपक्ष और सरकार के पक्ष में फैसले भी सुनाने लगती है. इसका मुख्य कारण मुझे सरकार की दमनकारी नीतियां और अलोकतांत्रिक रवैया लगता है. साथ ही कुछ पत्रकारों का निजी स्वार्थ और पत्रकारिता के उत्कृष्ट व्यवसाय को महत्व ना देकर सुविधाभोगिता को महत्व देना हो सकता है.

अब पहले से ही डरी, सहमी, कमजोर, नख दन्त विहीन मीडिया के ऊपर और अधिक पाबन्दी लगाना घायल और मरणासन्न पड़े लोकतंत्र को पूर्णतः समाप्त कर फासीवादी शक्तियों को और शक्तिशाली बनकर देश और देश की जनता को अपने शिकंजे में लेना है. जनता सोयी रहे और देश का अपमान, बलात्कार और लूट जारी रहे, यही इन फासीवादी सत्ताधारी लोगों की कामना है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो बिना आपातकाल के ही आपातकाल से बदतर स्थिति में रहेगा.

-राकेश चन्द्र

Friday, April 29, 2011

दिशाहीन युवा


एक दिन आधी रात को अचानक ऑफिस से निकलने के बाद मुझे 9वीं क्लास का अंग्रेजी का चैप्टर याद आ गया। इसमें बताया गया था कि आप अपने हाथ की छड़ी को वहीं तक भांज सकते हैं, जहां से किसी की नाक की शुरूआत होती है। करीब 16 साल पहले क्लास में बताई गई यह बात दिमाग में कौंध गई। हम चार लोग ऑफिस की गाड़ी से घर के लिए निकले थे। गाड़ी बड़ी मुश्किल से मिली थी, क्योंकि कई गाडिय़ां जो पहले लोगों को छोडऩे गईं थीं, वह द तर लौटी नहीं थीं। इससे पहले ऐसा तभी होता था, जब झमाझम बारिश हुई हो। लेकिन उस दिन बारिश नहीं हुई थी और सड़कों पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी, इसलिए गाडिय़ों के लौटकर नहीं आने पर थोड़ा आश्चर्य हुआ था। ऑफिस की गाड़ी हमें आईटीओ से लेकर इंडिया गेट की ओर चली। रास्ते में बाइक सवार कुछ युवक नारे लगाते हुए जा रहे थे। करीब एक-डेढ़ घंटा पहले ही क्रिकेट वल्र्ड के सेमीफाइनल मैच में भारत ने पाकिस्तान को हराया था। कुछ कार सवार लोग भी खिड़कियों से धड़ निकाल कर मैच में मिली जीत पर खुशी का इजहार कर रहे थे। तिलक मार्ग से इंडिया गेट सर्कल में प्रवेश करते ही गाडिय़ों के द तर न पहुंचने का माजरा समझ में आ गया। पूरी सड़क कारों और बाइक से अटी पड़ी थी। एक के पीछे एक गाडिय़ां लगी थीं। कुछ लोग कार की छतों पर चढ़कर चिल्ला रहे थे, तो कुछ डिग्गी खोलकर बैठ गए थे। कुछ आतिशबाजी भी कर रहे थे। इस तरह पूरा सर्कल भरा हुआ था। इन जोशीले युवाओं को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि पूरा सर्कल बंद हो चुका है और किसी को कहीं जाना भी होगा। करीब 10 मिनट हम फंसे रहे, लेकिन पुलिस कहीं नजर नहीं आई और न ही बैरिकेड्स। किसी तरह ड्राइवर गाड़ी को पटियाला हाउस के पीछे से निकालकर रिंग रोड पर ले आया। यहां सड़क बंद तो नहीं थी, लेकिन आसपास से कारों और बाइक से गुजरने वाले जोश के प्रदर्शन में पीछे नहीं थे। मैं और दिनों की तुलना में करीब आधे घंटे देर से घर पहुंचा था। इस घटना के अगले दिन पुलिस जागी और उसका बयान आया कि वल्र्ड कप फाइनल के दिन पूरी सतर्कता बरती जाएगी। मैं आशंकित तो था, लेकिन बयान से थोड़ा सुकून मिला कि शायद सेमीफाइनल जैसा सड़कों पर कुछ न हो। वल्र्ड कप फाइनल जीतने के बाद लोगों का जोश चरम पर था। उस दिन हमारी गाड़ी आईटीओ से आगे नहीं बढ़ सकी थी। टाइम भी लगभग वही था। मैं यह समझ नहीं पा रहा था कि युवा गाडिय़ां लेकर इंडिया गेट और शहर के चौक-चौराहों पर जाम लगाकर कैसा सेलिब्रेशन कर रहे हैं। क्या जोश और जुनून में आकर बीच सड़क पर कूल्हे मटकाने और गला फाड़ कर भारत माता की जय चिल्लाने से ही देशभक्ति की भावना प्रदर्शित की जा सकती है। क्या यही वास्तविक देश और क्रिकेट प्रेमी होने की पहचान है। यदि यही देश प्रेम और क्रिकेट प्रेमी होने की निशानी है, तो ऐसा नहीं करने वालों को किस श्रेणी में रखा जाए?

Friday, April 8, 2011

हजारे और हकीकत


अन्ना हजारे एक ऐसी सरकार के मुखिया से भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कानून बनाने की गुहार लगा रहे हैं जो अब तक सबसे भ्रष्ट साबित हुई है। एक बात समझ में नहीं आती कि भ्रष्ट लोगों के पनाहदाता से ही इसके खिलाफ कानून बनाने की मांग करते हुए आमरण अनशन करने का क्या अर्थ है। हजारे मनमोहन सिंह को कौन सी नई बात समझाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे वह अनजान हैं।
कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी ने भी यही तरीका अपनाया था और उन्हें सफलता भी मिली थी। लेकिन ऐसा कहना पूरा सच कहने जैसा नहीं है, बल्कि पूरे घटनाक्रम के केवल एक अध्याय का जिक्र करना भर है। ऐसे अनेक अधिकृत दस्तावेज पड़े हैं, जिनसे यह बात स्थापित होती है कि भारत की आजादी केवल महात्मा गांधी की रणनीति का नतीजा नहीं था और ऐसा मानना मुगालते में रहने जैसा है।
हां मैं विषय से भटक गया, लेकिन पूरी तरह नहीं। चूंकि हजारे गांधी की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ जंतर-मंतर पर सत्याग्रह कर रहे हैं, इसलिए समय को थोड़ा पीछे ले जाना पड़ा।
मैं गांधी और हजारे जैसी हस्तियों का कतई विरोधी नहीं हूं और नहीं मुझे उनकी मंशा और क्षमता पर संदेह है, बल्कि मुझे उनके तरीके पर आपत्ति है। हजारे आमरण अनशन करके सरकार को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे हैं कि प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने में सरकारी तंत्र से बाहर के लोग भी शामिल किए जाएं और यह विधेयक भ्रष्टïाचार के खिलाफ कठोर कानून की शक्ल ले ले।
मुश्किल यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार के ईंधन से ही चल रही हो, वह हजारे की बात कैसे मान सकती है। ऐसी स्थिति में या तो हजारे रहेंगे या फिर सरकार। दूसरी संभावना ज्यादा है क्योंकि जाहिर है, कोई भी तंत्र खुद का अस्तित्व मिटाने का उपाय नहीं कर सकता और इसके लिए सत्याग्रह करना कतई व्यवहारिक नहीं है।
यह भी कहा जा सकता है कि सूचना का अधिकार कानून हजारे और उनकी राह पर चलने वाले लोगों की कोशिशें का नतीजा है। हो सकता है यह सही हो, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सूचना के अधिकार कानून से केवल भ्रष्टाचार के संकेत मिल सकते हैं, निवारण के उपाय नहीं। इसलिए सरकार के लिए यह कानून बनाना मुश्किल जरूर रहा होगा, लेकिन इसकी वजह से उसके अस्तित्व को कतई खतरा नहीं था।
दूसरा यह कि यदि सूचना के अधिकार की गुहार हजारे नहीं लगाते, तो कोई और लगाता और इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार को इस तरह के कानून बनाने के लिए बाध्य कर देती। जैसा कि उसने पीजे थॉमस (पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त) और ए राजा (पूर्व संचार मंत्री) के मामले में किया है।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं हजारे को खारिज कर रहा हूं, बल्कि मैं यह कहना चाह रहा हूं कि वह सरकार को आत्महत्या करने के लिए कह रहे हैं। लेकिन सरकार भी कम शातिर नहीं है। वह बीच के रास्ते पर चलने के संकेत देने लगी है, जिसकी कोई व्यवहारिकता नहीं होती। हम या तो सच बोलते हैं या झूठ। इन दोनों के बीच बोलने का दावा या कोशिश छलावा है।
-भीम सिंह