Friday, November 26, 2010

मनमोहन प्रभाव


विकास के मुद्दे पर बिहार के नीतीश कुमार प्रचंड बहुमत के साथ एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गए। मनमोहन सिंह भी भारतीय अर्थव्यवस्था को चमकाने का सपना दिखाकर दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। नीतीश कुमार की नीतियों का वास्तविक असर आने वाले समय में दिखेगा, लेकिन मनमोहन सिंह की नीतियों के प्रभाव धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। वर्ष 1991 में वे केंद्रीय वित्त मंत्री बने थे और तभी से उदारीकरण की नीति अपनाकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब वाहवाही लूटी थी। उनकी दूसरी पारी तब शुरू हुई, जब वे तकरीबन 6 वर्ष पहले सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने। उनके मौजूदा कार्यकाल और पिछले कार्यकाल को भारत की तगड़ी आर्थित तरक्की के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों की ओर से जो रिपोर्ट जारी हो रही है, उनसे तो कम-से-कम यही लगता है कि उनके कार्यकाल में देश की अंदरुनी हालत बदतर हुई है।

वॉशिंगटन स्थित 'ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी' की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद कर की चोरी, अपराध और भ्रष्टïाचार के कारण भारत को कम-से-कम 450 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। हाल ही में उजागर हुए दूसरी पीढ़ी (2जी) का स्पेक्ट्रम घोटाला पौने लाख करोड़ रुपये का है। यह रकम उससे 10 गुनी है। रिपोर्ट कहती है कि इस घाटे के पीछे पूंजपति वर्ग और नीजि कंपनियों की बड़ी भूमिका रही है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक कर से बचने, गलत तरीकों से की गई कमाई, पूंजी को गुप्त रखने की प्रवृत्ति, घूसखोरी, भ्रष्टïाचार और गैरकानूनी धंधे छुपाने की कोशिशों के चलते यह धन भारत से विदेश चला गया। तेजी से देश से बाहर जाते धन का सीधा ताल्लुक देश में अमीर और गरीबों के बीच बढ़ते फासले से है। अमीर के पास ज्यादा पूंजी है, जिसे वह विदेश में छुपा रहा है। इसलिए गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं में जरूतर से कम खर्च किया जा रहा है। यानि विकास और उन्नति के लिए काम कम किए जा रहे हैं।

यह रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद यह घाटा बढ़ा है। इस तमाम घाटे का 68 फीसदी उदारीकरण के बाद ही हुआ। यानि निजी कंपनियों के लिए बाजार खोले जाने के बाद से पूंजीगत अपराधीकरण तेजी से बढ़ा है। जैसे-जैसे उदारीकरण की नीति आगे बढ़ती गई, देश से पैसा बाहर जाने की तीव्रता भी उसी गति से बढ़ी। मसलन, भारत से काला धन दूसरे देशों में जानी की गति पिछले 5 वर्षों में सबसे तेज रही।

दूसरी ओर दुनिया भर के अमीरों पर नजर रखने वाली पत्रिका 'फोब्र्स' के मुताबिक वर्ष 2009 में भारतीय अरबपतियों की संख्या दोगुनी हो गई। वर्ष 2008 में 24 भारतीय अबरपति थे, जिनकी संख्या वर्ष 2009 में 49 हो गई। इसके उलट ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से राज्यसभा को दी गई जानकारी के मुताबिक वर्ष 2004-05 के दौरान भारत में गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाली आबादी 30.17 करोड़ थी। जाहिर है, पिछले 5 वर्षों दौरान यह संख्या भी तेजी से बढ़ी है। मतलब यह कि देश में जिस गति से अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, उसी तीव्रता से गरीबी भी बढ़ रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कथित रूप से आर्थिक महाशक्ति में तब्दील होते हमारे देश में गरीबी और अमीरी समान अनुपात में किस वजह से बढ़ रही है? इसी के साथ-साथ विदेशों में जाने वाले काले धन की मात्रा में भी दिनोंदिन इजाफा हो रहा है।

हाल ही में विश्व स्वस्थ्य संगठन ने भी एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक बीमारियों के इलाज पर होने वाले भारी खर्च की वजह से सालाना 10 करोड़ लोग गरीब हो रहे हैं। भारत जैसे कुछ देशों में प्रत्येक वर्ष 5 फीसदी आबादी इसलिए गरीब हो जाती है क्योंकि उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना पड़ता है। यह रिपोर्ट कहती है कि करोड़ों लोग बीमारियों से इसलिए मर रहे हैं क्योंकि उनके पास इलाज करवाने के लिए धन नहीं है। ऐसे लोगों की संख्या भी लाखों में है, जो इलाज शुरू तो कर लेते हैं, लेकिन इसे जारी रखने के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं होता और अंतत: उनकी मौत हो जाती है।

इस रिपोर्ट में वर्ष 2007 में किए गए 'हार्वर्ड विश्वविद्यालय' के एक अध्ययन का हवाला दिया गया है, जिसके मुताबिक भारी-भरकम मेडिकल बिल की वजह से 62 फीसदी परिवार दीवालिया हो जाते हैं।

जाहिर है, मौजूदा विकास की नीति और पैमाना चिंताजनक रूप से दोषपूर्ण हैं। आंकड़े और तथ्य यह भी दर्शाते हैं कि मनमोहन सिंह की उदारीकरण एवं तेज विकास की नीति ने देश की अर्थव्यवस्था का बाहरी आवरण तो चमका दिया है, लेकिन इसके नतीजे गंभीर हैं। अरबपतियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ते जाने, बाजार का विस्तार और कॉर्पोरेट जगत की मजबूत होती हुई स्थिति विकास के पैमाने कतई नहीं माने जा सकते क्योंकि इसी अर्थव्यवस्था के गवाह करोड़ों लोग दिनोंदिन गरीब होते जा रहे हैं, बीमारी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है और भ्रष्टाचार एवं घोटालों के मामले तमाम सीमाएं लांघ चुके हैं।
विभिन्न रिपोर्ट एवं आंकड़ों से जाहिर होता है कि वर्ष 1991 में जब मौजूदा प्रधानमंत्री वित्त मंत्री बने थे और उन्होंने उदारीकरण की नीति अपनाते हुए देश की अर्थव्यवस्था को खुले बाजार की पटरी पर दौड़ाई थी, तभी से वित्तीय और पूंजीगत अपराधीकरण के साथ-साथ भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति भी तेज हो गई। यह भी स्पष्टï है कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये प्रवृत्तियां ज्यादा बेलगाम हुई हैं।

दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था मिश्रित प्रणाली की है, जिसमें राज्य का कामकाज उन आधारभूत नीति से बहुत ज्यादा प्रभावित होता है, जिसके तहत निजी अर्थव्यवस्था संचालित होती है। मतलब यह कि सरकार के आर्थिक एवं अन्य फैसलों का सीधा असर जनता पर होता है। जाहिर है, मौजूदा हालात के लिए सीधे-सीधे हमारी सरकार जिम्मेदार है।

-भीम सिंह

4 comments:

  1. Udarikaran ke faayade bhi hain. Unhen bhi shaamil is lekh men shamil karate to maza aata! tumne badi mehnat ki hai....iske liye badhaai ke paatra ho!

    ReplyDelete
  2. Bahut saargarbhit lekh hai. Agar saare patrakaar isi prakaar se "sirf sach" bolen to is desh ka kaaya palat ho jaaye. Magar afsos, is desh ke buddhijeeviyon ki lekhni bhi mol tol ka aur "udaarikaran" ka shikar ho gai hai.

    Udaarikaran ke kuchh faayde ye hain:
    1. Pradushan Ka badhna
    2. Videshi kampaniyon ki kamaai badhna
    3. Bharateeyon ke khoon padeene ki kamaai par Swiss Bank ka turnover badhna
    4. Aayat Badhna
    5. Rupaye kaa avmulyan
    6. Desh ka budget IMF aur World Bank kee banaai neeti par banana.
    7. Karon ka betahasha badhna
    8. Gareebon, chhote kisanon aur chhote dookaandaaron ka vyavsaay band ya kam ho jaana, Wall Mart ka jaal is desh men fail jaana.
    9. Udhaar lekar sharmnaak aarthik samjhaute karna aur is desh ki arthvyastha ko chalaanaa.

    ReplyDelete