Friday, April 29, 2011

दिशाहीन युवा


एक दिन आधी रात को अचानक ऑफिस से निकलने के बाद मुझे 9वीं क्लास का अंग्रेजी का चैप्टर याद आ गया। इसमें बताया गया था कि आप अपने हाथ की छड़ी को वहीं तक भांज सकते हैं, जहां से किसी की नाक की शुरूआत होती है। करीब 16 साल पहले क्लास में बताई गई यह बात दिमाग में कौंध गई। हम चार लोग ऑफिस की गाड़ी से घर के लिए निकले थे। गाड़ी बड़ी मुश्किल से मिली थी, क्योंकि कई गाडिय़ां जो पहले लोगों को छोडऩे गईं थीं, वह द तर लौटी नहीं थीं। इससे पहले ऐसा तभी होता था, जब झमाझम बारिश हुई हो। लेकिन उस दिन बारिश नहीं हुई थी और सड़कों पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी, इसलिए गाडिय़ों के लौटकर नहीं आने पर थोड़ा आश्चर्य हुआ था। ऑफिस की गाड़ी हमें आईटीओ से लेकर इंडिया गेट की ओर चली। रास्ते में बाइक सवार कुछ युवक नारे लगाते हुए जा रहे थे। करीब एक-डेढ़ घंटा पहले ही क्रिकेट वल्र्ड के सेमीफाइनल मैच में भारत ने पाकिस्तान को हराया था। कुछ कार सवार लोग भी खिड़कियों से धड़ निकाल कर मैच में मिली जीत पर खुशी का इजहार कर रहे थे। तिलक मार्ग से इंडिया गेट सर्कल में प्रवेश करते ही गाडिय़ों के द तर न पहुंचने का माजरा समझ में आ गया। पूरी सड़क कारों और बाइक से अटी पड़ी थी। एक के पीछे एक गाडिय़ां लगी थीं। कुछ लोग कार की छतों पर चढ़कर चिल्ला रहे थे, तो कुछ डिग्गी खोलकर बैठ गए थे। कुछ आतिशबाजी भी कर रहे थे। इस तरह पूरा सर्कल भरा हुआ था। इन जोशीले युवाओं को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि पूरा सर्कल बंद हो चुका है और किसी को कहीं जाना भी होगा। करीब 10 मिनट हम फंसे रहे, लेकिन पुलिस कहीं नजर नहीं आई और न ही बैरिकेड्स। किसी तरह ड्राइवर गाड़ी को पटियाला हाउस के पीछे से निकालकर रिंग रोड पर ले आया। यहां सड़क बंद तो नहीं थी, लेकिन आसपास से कारों और बाइक से गुजरने वाले जोश के प्रदर्शन में पीछे नहीं थे। मैं और दिनों की तुलना में करीब आधे घंटे देर से घर पहुंचा था। इस घटना के अगले दिन पुलिस जागी और उसका बयान आया कि वल्र्ड कप फाइनल के दिन पूरी सतर्कता बरती जाएगी। मैं आशंकित तो था, लेकिन बयान से थोड़ा सुकून मिला कि शायद सेमीफाइनल जैसा सड़कों पर कुछ न हो। वल्र्ड कप फाइनल जीतने के बाद लोगों का जोश चरम पर था। उस दिन हमारी गाड़ी आईटीओ से आगे नहीं बढ़ सकी थी। टाइम भी लगभग वही था। मैं यह समझ नहीं पा रहा था कि युवा गाडिय़ां लेकर इंडिया गेट और शहर के चौक-चौराहों पर जाम लगाकर कैसा सेलिब्रेशन कर रहे हैं। क्या जोश और जुनून में आकर बीच सड़क पर कूल्हे मटकाने और गला फाड़ कर भारत माता की जय चिल्लाने से ही देशभक्ति की भावना प्रदर्शित की जा सकती है। क्या यही वास्तविक देश और क्रिकेट प्रेमी होने की पहचान है। यदि यही देश प्रेम और क्रिकेट प्रेमी होने की निशानी है, तो ऐसा नहीं करने वालों को किस श्रेणी में रखा जाए?

3 comments:

  1. भाई साहब....छा गये,,,,....

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  2. देश के युवाओं की हालत को लेकर नपेतुले शब्दों में तुमने बहुत कुछ कह डाला। किसी शायर ने कहा है 'तेरे पांव तले जमीं नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं।' हमारा झुकाव किस ओर है, शायद इसका अंदाजा लगते-लगते बहुत देर हो चुकेगी।

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  3. इस लेख के लिए शब्द "सर्वोत्तम" शब्द भी फीका है. काफी सारगर्भित और सत्य को सीधे सीधे बिना लाग लपेट के व्यक्त करता हुआ आलेख है.

    रही बात लेख के अंत में उठाये गए प्रश्न का उत्तर, वह जितना साधारण है उतना ही रहस्यमयी भी. हुड़दंग मचाकर "भारत माता की जय" बोलने से देश भक्ति झलकती है वाली मानसिकता के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई व्यवस्था जिम्मेदार है, जो आजादी के बाद और भी तेजी से अमल में लाई जा रही है. हम सामाजिक मूल्यों को ताक पर रखकर केवल पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण करने को ही शिक्षा समझने लगे हैं. हमने अपनी हर चीज़ को पुराना, घिसा पिटा, आउटडेटेड समझ कर उनसे किनारा करना शुरू कर दिया. इस चक्कर में हम अपने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर को नहीं बचा पाए. इस तरह पटाखे फोड़कर, गाड़ियों में चक्कर लगाकर, हुड़दंग करके "सेलेब्रेशन" करनेवालों का हुजूम "पढ़े लिखे मूर्खों" का समूह "इंडिया" का एक भाग है. असली देश तो "भारत" है जिसके ८०-८५ करोड़ लोगों को तो यह पता तक नहीं कि हमारे देश को "इंडिया" के नाम से विदेशी जानते हैं. जीत को दर्शाने के लिए दो उँगलियों को फैलाकर "वी" बनाने वाले इंडिया के लोग यह नहीं जानते कि वे "भारत" में रहते हैं जिसको ये "इंडिया" कह रहे है. और इस भारत में "वी" की तरह उंगली दिखाने का अर्थ "तेरी दोनों आँखें फोड़ डालूँगा" भी लगाया जा सकता है और इस क्रम में दोनों टांगें गंवानी पड़ सकती हैं.

    वस्तुतः, हम "जम्बूद्वीपे भारत खंडे" के रहनेवाले लोग हैं और हमारे अपने तौर तरीके हैं. ये तो अंग्रेजों क़ी सोची समझी चाल के तहत आज भी भारत को इंडिया में बदलने कि पुरजोर कोशिश चल रही है. हमारे अस्तित्व को नकारने का, या फिर उसे चिढाकर हीन बताने का अभियान जोर शोर से चल रहा है. उसी क्रम में "क्रिकेट" को इस देश का "रिलिजन" घोषित कर दिया जाता है. इस देश के प्रधानमंत्री, महारानी और राजकुमार को इसी के माध्यम से विदेश नीति के तिकड़म बैठाना सूझता है. जरा सोचिये, १२० करोड़ लोगों के देश के प्रधानमन्त्री के पास इतना समय कहाँ बचना चाहिए क़ि वह दिनभर क्रिकेट देखते बैठे? और मजे की बात, राम मिलाये जोड़ी एक अँधा एक कोढ़ी. हमारा पडोसी देश का प्रधानमंत्री भी इन्हीं का जोड़ीदार निकला. यह सब देख कर जनता का दिमाग फिरना स्वाभाविक ही है. यही जश्न और माहौल किसी और खेल के लिए क्यों नहीं देखने को मिलता? तब हमारी मीडिया कहाँ सो रही होती है? हमारे इन तथाकथित खेलप्रेमियों से अगर भारत के राष्ट्रीय खेल का नाम पूछ लो तो तारे गिनने लगेंगे.

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