Friday, November 30, 2012

केंद्र की पंगु करने वाली नीतियां

यूपीए सरकार की कुछ नीतियों से मैं अचंभित हूं। देश की अर्थव्यवस्था और आम
लोगों की परेशानियां समझने वाले ज्यादातर लोगों की यही स्थिति होगी
क्योंकि केंद्र सरकार पिछले तकरीबन 8 वर्षों से जिस तरह की नीतियां लागू
कर रही है, उनकी वजह से जनता का भविष्य उतरोत्तर भयावह होता जा रहा है,
लेकिन लोग इसका अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं।

मेरी हताशा इस बात को लेकर है कि मनमोहन सरकार यदि इसी तरीके से अपना परोक्ष एजेंडा लागू करती रही
तो किसानों के साथ-साथ उन तमाम लोगों की जिंदगी भी दुभर हो जाएगी जो
जीवनयापन के लिए एक हद तक रोज की आमदनी पर निर्भर रहते हैं। जाहिर है,
जैसे-जैसे समस्या की गंभीरता बढ़ती जाएगी, उसी हिसाब से आत्महत्या और
अपराध जैसी सामाजिक बुराइयों की जड़ें भी गहरी होती जाएंगी।
जरा गौर कीजिए, किसानों का कर्ज माफ किया जाना, स्कूलों में दोपहर का
भोजन उपलब्ध कराना (जबकि पर्याप्त तादाद में अच्छे शिक्षकों की जरूरत
ज्यादा है), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना और अब नकद
सब्सिडी की व्यवस्था... ये सारी नीतियां देश की गरीब जनता को फौरी राहत
तो पहुंचा रही हैं, लेकिन इनके नतीजे भयावह होंगे और हो भी रहे हैं। असल
में लोगों को फौरी राहत देने के इन तमाम उपायों की असली मंशा चुनावी
रणनीति में अपना पलड़ा भारी करना और असली एवं बड़े मुद्दों से मतदाताओं
का ध्यान भटकाना भर है। भारतीय अर्थव्यवस्था की संवेदनशीलता और
अर्थशास्त्र के तमाम बुनियादी सिद्घांत इस तरह की नीतियों के खिलाफ हैं।
मसलन, मनचाहा खिलौने देकर बच्चों को खुश तो किया जा सकता है, लेकिन उनका
बेहतर भविष्य सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार फिलहाल आम जनता
के साथ यही कर रही है।

सरकार देश में उस नीति को जल्द-से-जल्द लागू करने पर आमादा है, जिसके तहत
गरीबों को ऐसी कई चीजों पर मिलने वाली सरकारी रियायत के लिए सीधे नकद रकम
(कैश सब्सिडी) मुहैया कराई जाएगी, जो उनके रोजमर्रा के जीवन के लिए
आवश्यक होती हैं। राशन, किरोसीन, खाद, चीनी और रसोई गैस ऐसी ही चीजें
हैं। अब जरा सोचिए जरूरतमंद लोगों को राशन यानी अनाज की आपूर्ति
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से की जाती है। इस तरीके से
बांटे जाने वाले राशन का भाव बाजार भाव से कम होता है क्योंकि सरकार की
तरफ से सब्सिडी दी जाती है। यदि जरूरतमंद लोगों को यह सब्सिडी नकद दे दी
जाएगी तो पीडीएस की जरूरत ही खत्म हो जाएगी। इस मामले में सरकार का तर्क
है कि पीडीएस में इस कदर खामियां हैं कि लाभार्थियों को इस योजना का पूरा
लाभ नहीं मिलता। सरकार तो अपनी तरफ से पर्याप्त खर्च करती है, लेकिन
गरीबों का ज्यादातर हिस्सा नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी और इस पूरी प्रणाली
में भागीदार अन्य लोग खा जाते हैं। तो जरूरत इस बात की थी कि इस लचर
प्रणाली की खामियां दूर की जाएं, जो असंभव तो नहीं है, लेकिन इसके लिए
राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कौशल की जरूरत होगी। लेकिन इसका त्वरित
हल निकालने के लिए जो उपाय किया जा रहा है, उससे यदि पीडीएस खत्म हो जाता
है, तो किसानों के ऊपज की सरकारी खरीद की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। ऐसे
में किसान अपनी ऊपज बेचने के लिए पूरी तरह बाजार के रहमोकरम पर निर्भर हो
जाएंगे और बाजार की फितरत क्या होती है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।

दूसरी तरफ,

मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक सरकार नकद सब्सिडी के तौर
पर गरीबों के खाते में 35,000-40,000 रुपये डाल देगी। जिस तबके के लिए यह
इंतजाम किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्होंने एक साथ
इतनी बड़ी रकम देखी ही नहीं है। ऐसे में वे इस पैसे का इस्तेमाल ऐसे काम
में कर लेंगे, जो शायद उनके लिए गैर-जरूरी हो। इंसान की सहज प्रवृत्ति को
देखते हुए इस बात की पूरी आशंका है कि यह रकम कुछ ही महीनों के दौरान कुछ
जरूरी चीजों के साथ-साथ ऐसे कार्यों में खर्च कर दी जाएगी जिसकी ज्यादा
जरूरत ही न हो, जबकि यह रकम पूरे साल के लिए होगी। अब सवाल उठता है कि
थोड़े दिनों में सरकार की तरफ से मिले पैसे खर्च हो जाने के बाद साल के
बाकी बचे महीनों में उनका गुजारा कैसे चलेगा क्योंकि घर-परिवार के लिए
जरूरी चीजों और सेवाओं पर सरकार रियायत नहीं मिलेगी और सभी चीजों के लिए
बाजार पर निर्भर रहना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में ज्यादातर परिवार गहरे
वित्तीय संकट में फंस जाएंगे।

पिछले आम चुनावों से पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील
गठबंधन ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना शुरू की थी,
जिसका निहितार्थ हासिल करने में उसे सफलता भी मिली। लेनिक इसे किसी भी
नजरिये से परिपक्व और तर्कसंगत योजना नहीं कहा जा सकता। परिवार के एक
सदस्य को केवल 100 दिनों का रोजगार और मजदूरी इतनी की केवल एक ही आदमी का
गुजारा चल सके। अब इस सवाल का जवाब कौन देगा कि बाकी के 265 दिन ऐसे
मजदूर क्या करेंगे और परिवार के अन्य सदस्यों की रोजी-रोटी की व्यवस्था
कैसे होगी।

असल में यह योजना गांव के भूखे-नंगों को शहर आने से रोकने और उनके असंतोष
को कम करने का एक सतही तरीका भर है। इस योजना की वजह से गांव के लोग बाहर
जाने के विकल्प पर कम गौर करते हैं और इतना ही कमाते हैं कि किसी तरह
उनका पेट भर सके। जीने के लिए बाकी जरूरतों की चिंता उन्हें जीवन भर खुद
ही करनी है। जाहिर है, ऐसे में उन्हें कुछ सोचने-समझने की फुर्सत ही नहीं
मिलेगी। उनके लिए हर दिन का एक-एक क्षण जिंदा रहने के उपाय करने में बीत
जाएगा। अपने अधिकारों पर गौर करने, परेशानियों और अभाव के लिए कौन
जिम्मेदार है? इस सवाल का जवाब तलाशने और तरक्की जैसे मसलों पर आपस में
चर्चा करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। जाहिर है, सरकार ने इस योजना
के माध्यम से लोगों को इतनी बड़ी उलझन में डाल रखा है कि देश में बदलाव
और बेहतरी के लिए किसी तरह के आंदोलन या क्रांति की गुंजाइश ही नहीं रह
गई है क्योंकि कड़ी मेहनत करने के बाद पेट भर जाए तो गहरी नींद आ जाती
है।

मनमोहन सिंह की टीम ने कुछ साल पहले एक और क्रांतिकारी फैसला किया था,
जिसकी बदौलत उसे खूब वाहवाही भी मिली थी। किसानों का कर्ज माफ करने के
लिए सरकारी खजाना खोल दिया गया था और किसान कर्जमुक्त होकर गदगद हो गए
थे। यदि सरकार का यह फैसला सही होता तो देश में किसानों की आत्महत्या का
सिलसिला थम जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि इस तरह का तरीका
अपनाने से किसी भी समस्या का हल निकल ही नहीं सकता। भिखारी को भीख दे
देने से यह सामाजिक बुराई खत्म हो जाएगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा
सकती। इस बीमारी का हल तो तब निकलेगा, जब इसके मूल कारणों की तलाश करके
उसका स्थायी निवारण किया जाए।

हां तो, किसानों का कर्ज माफ करने का दोतरफा असर हुआ। पहले किसान कर्ज
लेने से पहले कई चीजों पर गौर करते थे। मसलन, उन्हें वास्तव में कर्ज
लेने की जरूरत है या नहीं, वे समय पर कर्ज चुका पाएंगे या नहीं और यह कि
जिस काम के लिए कर्ज लिया जा रहा है उसका इस्तेमाल निश्चित रूप से उसी
काम के लिए करना है। बैंक भी उन्हें कर्ज देने से पहले कर्ज वापसी की
संभावनाएं खंगाल लेते थे। लेकिन सरकार की ओर से किसानों का कर्ज माफ कर
दिए जाने के बाद इस तरह के कर्ज लेने और देने की प्रवृत्ति बढ़ गई। लोगों
को लगने लगा कि सरकार उनका कर्ज एक बार फिर माफ कर देगी और बैंक तो
उन्हें कर्ज देने से औपचारिक तौर पर मना कर ही नहीं सकते। नतीजतन कई ऐसे
किसान भी भारी कर्ज के बोझ तले डूबते जा रहे हैं, जो इस परेशानी से बच
सकते थे और बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्तियों में लगातार इजाफा होता जा
रहा है। इसकी सबसे बड़ी नजीर भारतीय स्टेट बैंक है, जिसकी देश के तमाम
इलाकों में व्यापक पहुंच है। मामले की गंभीरता पर गौर करने के लिए इस
बैंक की नवीनतम बैलेंस शीट देखी जा सकती है।

असल में किसानों का कर्ज माफ करने, मनरेगा और अब नकद सब्सिडी (खबरें हैं
कि इस योजना पर सरकार को सालाना तकरीबन सवा तीन लाख करोड़ रुपये खर्च
करने होंगे) जैसी योजनाओं पर सरकार जितना खर्च कर रही है यदि उसका
इस्तेमाल बढिय़ा शिक्षा की व्यवस्था, जरूरी बुनियादी ढांचे का इंतजाम और
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ किसानों को खाद, बीज और खेती के लिए
जरूरी उपकरण मुहैया करने में किया जाता तो वास्तव में देश की तस्वीर बदल
सकती थी। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सरकार की यह बुनियादी जिम्मेदारी भी
होती है, जिसे हमारी सरकारें निभाना ही नहीं चाहतीं। उन्हें तो जनता को
सक्षम बनाने से बेहतर उन्हें निर्भर बनाना लगता है क्योंकि सत्ता में बने
रहने का यही सबसे सरल तरीका है।

आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? असल में मैं आसमान की
तरफ सर उठाकर तारे देखने की कोशिश कर रहा हूं, यह जानते हुए कि सितारे
दिन में नजर नहीं आते।

-भीम सिंह (सीनियर सब एडिटर, बिज़नेस स्टैण्डर्ड)

1 comment:

  1. हमारे प्रधानमंत्रीजी आर्थिक सुधारों के साथ रणनीतिक सुधारों में भी विश्वास रखते हैं। अबतक के भारत के प्रधानमन्त्री केवल भारत के विकास की बात सोचते थे, ये महाशय अमेरिका के विकास की ही सोचते हैं।

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