चुनाव और गर्मी की तपिश में उल्टे-सीधे बयानों ने मुङो परेशान कर दिया था। इससे भी अधिक परेशान मैं लगभग रोज ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवारों के नए-नए नाम सामने आने से था। हमारे यहां चुनाव अबतक नहीं हुए हैं। मैं भी अपने अन्य मित्रों के साथ आगामी प्रधानमंत्री के हर रोज बदलने के साथ ही रोज पार्टी बदलने पर मजबूर हो गया हूं। यह तय कर पाना बड़ा ही मुश्किल हो गया है कि आखिर हम वोट किस पार्टी को दें। कैलेंडर के दिन और तारीख की तरह हर सुबह एक नया भावी प्रधानमंत्री हमारे सामने हाजिर हो जाता है। मुङो यह सब किसी भूल-भुलैया से तनिक भी कम नहीं लग रहा है।
मुङो तो यह लोकतंत्र-वंत्र बहुत बड़ा कसाई लगने लगा है। आप ही देखिए न, हर तरह से इसकी चक्की में आम जनता का ही कीमा बनाया जाता है। एक तो नेताओं को वोट दो लेकिन वे अपनी जेबें भरने के सिवा कुछ और नहीं भरते। रास्ते के गड्ढे खाई में तब्दील हो जाते हैं। अब जब इनसे गड्ढे न भरे गए तो खाई क्या खाक भरेंगे। जनता बेचारी को फरेब खाकर ही संतोष करना पड़ता है। जब बदला लेने की बारी आती है तब तिकड़मी नेता जनता को बरगलाने लगते हैं। लोमड़ी से भी चालाक नेता रहम की भीख मांगने लगते हैं। क्या करे जनता, उसे पिघलना पड़ता है। जनता के सामने एक और बड़ी मुश्किल है। चुनावों के दरम्यान सर्वेक्षणों पर रोक लगा दी गई है। जनता अब किस आधार पर वोट करे। उसे तो कोई ओर-छोर ही नजर नहीं आता। कहीं से कुछ हासिल नहीं कर पाती बेचारी जनता!
यह सब देख-सुन कर मैंने अपने मित्रों को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एक दौड़ का आयोजन करने का सुझाव दिया। इसके लिए हमने किसी खास किस्म की योग्यता की जरूरत नहीं समझी। जसे-इस दौड़ में हिस्सा लेने के लिए किसी जाति या धर्म विशेष का होने या दौड़ में कीर्तिमान स्थापित करने वाले परिवार से होने की भी जरूरत नहीं समझी गई। इससे आलोचक घबरा गए। उन्होंने इसे फ्लॉप शो करार दे दिया। यह भी कहा गया कि इस दौड़ का विजेता सफल प्रधानमंत्री नहीं हो सकता क्योंकि वह इस पद के लिए जरूरी योग्यता को पूरा नहीं करता!
इस अनुभव के बाद मुङो लगा कि देश को इस बार प्रधानमंत्री नहीं मिलेगा! इस कुर्सी को पाने के लिए बड़ी मारकाट मची है। कई लोग लाइन में हैं। अच्छा यही होगा कि अगली बार के लिए सोचा जाए। मुमकिन है तब तक भीड़ भी छंट जाएगी और मुकाबले में बस एक-दो लोग ही बचे होंगे।
Yun hi likhte raho.Shubkamnayen.
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