Friday, May 22, 2009

बिन मांगे मोती मिले

चुनाव के नतीजे आने के पहले तक मैं सोच रहा था कि नतीजे आने के सप्ताह-दस दिन बाद भी राजनीतिक गहमगहमी रहेगी। ऐसा सोचने वाला मैं इकलौता था यह दावा नहीं कर सकता! हालांकि दावा करने में अपना कुछ तो जाता है नहीं लेकिन फिर भी दावा नहीं करता! बात राजनीति की हो रही है तो यहां कुछ भी संभव है। यहां दावा करना बुरी आदत नहीं माना जाता। इसे एक अतिरिक्त योग्यता के रूप में लिया जाता है। दावा अगर नकली बम की तरह फुस्स भी हो जाए तो कोई बात नहीं। इस बारे में सोचा नहीं जाता!

चुनाव परिणाम आने के बाद अनेक दावों की हवा निकल गई। कई नेता जो कल तक शेर की तरह दहाड़ मार रहे थे अचानक ही आज मेमने की तरह मेमियाने लगे! सभी सरकारी मलाई चाटने के लिए जुगत भिड़ाने में लग गए। बिन बुलाए मेहमान की तरह कुर्सी तक पहुंचने के लिए रास्ता बनाने में जुट गए। चुनावों में एक दूसरे के खिलाफ आग उगलना भी याद नहीं रहा। सबकुछ भूलकर एक-दूसरे के साथ मिलकर चलने के लिए तैयार हैं। यह देखकर मुङो लगा कि वाकई सरकारी मलाई बड़ी लजीज होती होगी, जिसके बिना रहा नहीं जा सकता!

मंत्री बनने-बनाने के लिए पासा फेंका जाने लगा। चिरौरी की जाने लगी। कई बड़े लोग आग्रह करने लगे। यह भी बड़ी विडंबना है कि किसी से मंत्री बनने के लिए आग्रह किया जाता है तो कोई बनाने के लिए चिरौरी करता है! कल तक चुनाव परिणामों पर जिसके प्रभाव की बात की जा रही थी उसके बारे में आज कहा जा रहा है कि देश को समझने के लिए मंत्री बनना जरूरी है! गहमागहमी का अजीब सा माहौल बन गया है।

पिछली सरकार का कार्यकाल याद आता है। हर मौके पर सरकार क्षेत्रीय दलों के आगे हाथ जोड़कर खड़ी रहती थी। इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दे दो या इस फैसले को लागू करने में हमारा साथ दे दो। और ये दल आंखें दिखाते थे। अकड़ जाते थे। तरह-तरह की शर्ते रखते थे। कभी-कभी तो अपनी बात मनवाने के लिए समर्थन वापसी तक की धमकी दे देते थे। यानी क्षेत्रीय दल सरकार को नचाते थे।
लेकिन इस बार मामला उलट गया है। अब यूपीए को समर्थन देनेवालों का तांता लगा हुआ है। हर दिन कोई न कोई आ रहा है और कह रहा है कि हमारा भी समर्थन ले लो। हम सरकार से सहयोग करना चाहते हैं। देश को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देना चाहते हैं। अपने राम को यह देखकर वह कहावत याद आ रही है - बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख।

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