Thursday, June 9, 2011
किसकी है यह सरकार?
४ जून की घटना के कई मायने हैं. कुछ चीजें सामने आ गई हैं, कुछ परदे के पीछे हैं. यहाँ मैं कुछ छुए और कुछ बिलकुल अनछुए पहलुओं पर चर्चा करना चाहूँगा. जहाँ तक सरकार और उसके मंत्रियों का सवाल है, यह साफ़ दिख रहा है कि सत्तापक्ष में दो धड़े हो चुके हैं. एक धड़ा लोकतान्त्रिक मूल्यों और मानवातावादी मूल्यों का पोषक है, तो दूसरा सत्ता, शक्ति के नशे में चूर होकर मदमस्त, अँधा और तानाशाह बन चुका है. पहला धड़ा गांधीवादी, भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का समर्थक है, तो दूसरा धड़ा पाश्चात्य सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक विचारधारा का समर्थक ही नहीं बल्कि हर कीमत पर उसे भारत पर थोपने के लिए लालायित है. पर कुल मिलाकर संख्या में ज्यादा कौन है, यह कहना मुश्किल है. पर यह साफ़ हो चुका है कि तानाशाह धड़ा सरकार की नीतियों और महत्वपूर्ण निर्णयों पर जरूर भारी पड़ रहा है. उदारवादी धड़ा पता नहीं किस मजबूरी में हर गलत कदम को चुपचाप सहन कर रहा है. शायद सत्य का साथ देने की अपेक्षा सत्ता का साथ देना ज्यादा सुगम लग रहा है.
विरोध और विचारों पर चर्चा प्रजातंत्र को शक्ति प्रदान करने वाले प्रेरणा स्रोत हैं. चाहे वह सरकार को चलाने वाली पार्टी के अन्दर हो या विरोधी पक्ष की तरफ से हो. प्रश्न यह है की देश, उसके लोग, देश का भविष्य ज्यादा महत्वपूर्ण है या सरकार, सरकार में सम्मिलित दल, सरकार में सम्मिलित दलों के नेता और उनके निजी हित? सरकार के किसी भी कदम से अगर देश और देश के लोगों को नुक्सान होता है, तो विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ताधारी पार्टी की तरफ से भी सरकार के कदम की निंदा होनी चाहिए. सरकार में सम्मिलित दल के किसी नेता के किसी कर्म से अगर देश का अहित होता है तो वह सबके लिए सर्वथा निंदनीय होना चाहिए. अगर सरकार के आदेश पर पुलिस ने कुछ अमानवीय कृत्य किया है, तो उसकी निष्पक्ष जांच की मांग भी राजनेताओं को दल और विचारधारा के भेदभाव को परे रखकर करना चाहिए. पर दुर्भाग्य की बात है, एक भी सत्ताधारी दल के नेता ने पुलिस के कृत्य की निंदा नहीं की और ना ही अमानवीय कृत्यों के लिए दोषी पुलिस अधिकारियों का पता लगा कर कारवाई की मांग की. उल्टा कारवाई को सही ठहराया. ऐसा तो किसी तानाशाह ने भी नहीं किया होगा. क्योंकि शांतिपूर्ण अनशन करनेवाले लोग ना तो सत्ता परिवर्तन की बात कर रहे थे, ना ही स्वयं के लिए कुछ सरकार से सुविधा मांग रहे थे. वे तो सरकार से ऐसे कड़े कदम उठाने और कड़े क़ानून बनाने की मांग कर रहे थे जो देशहित में था और बहुत वर्षों पहले ही हो जाना चाहिए था.
अब चर्चा करें मीडिया की. मीडिया को निष्पक्ष, निडर और निष्कलंक होना चाहिए. पर मीडिया का रुख हवा के रुख के साथ बदलता दीखता है. मीडिया तार्किक समीक्षा, निष्पक्ष विचार और वस्तुस्थिति के सही आकलन के बजाय सनसनी फैलाकर टी आर पी बढाने के उद्देश्य से प्रेरित दीखती है. साथ ही जहां मीडिया सरकार के आगे भीगी बिल्ली बनी नजर आती है, अमूमन सरकार की गलतियों पर सरकारी अधिकारियों और सत्ताधारी दलों के नेताओं से कठोर प्रश्न नहीं पूछती. दूसरी तरफ सरकार का विरोध करनेवालों से उल जलूल, अतार्किक प्रश्न करती दीखती है. कभी कभी ऐसा लगा जैसे "न्यायाधीश" की भूमिका में आकर विरोधी के विपक्ष और सरकार के पक्ष में फैसले भी सुनाने लगती है. इसका मुख्य कारण मुझे सरकार की दमनकारी नीतियां और अलोकतांत्रिक रवैया लगता है. साथ ही कुछ पत्रकारों का निजी स्वार्थ और पत्रकारिता के उत्कृष्ट व्यवसाय को महत्व ना देकर सुविधाभोगिता को महत्व देना हो सकता है.
अब पहले से ही डरी, सहमी, कमजोर, नख दन्त विहीन मीडिया के ऊपर और अधिक पाबन्दी लगाना घायल और मरणासन्न पड़े लोकतंत्र को पूर्णतः समाप्त कर फासीवादी शक्तियों को और शक्तिशाली बनकर देश और देश की जनता को अपने शिकंजे में लेना है. जनता सोयी रहे और देश का अपमान, बलात्कार और लूट जारी रहे, यही इन फासीवादी सत्ताधारी लोगों की कामना है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो बिना आपातकाल के ही आपातकाल से बदतर स्थिति में रहेगा.
-राकेश चन्द्र
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