बेढब जी एक बार फिसले तो फिसलते चले गए। मेरे मित्र को पता ही नहीं चला कि कितना ढलान है। लुढ़कते-लुढ़कते गड्ढे में जा गिरे। संयोग से वह उनके मोहल्ले का गटर नहीं था। लेकिन था कुछ वैसा ही! उसकी गहराई से उन्होंने अंदाजा लगाया कि कहीं यह मेरियाना गर्त तो नहीं! गनीमत है गिरने के बाद भी कम से कम अंदाजा लगाने के काबिल तो बचे! अपनी इस हालत के लिए जिम्मेदार भी वही थे। सिकुटी-सिकुटी टांगों और पिचके गालों पर कौन रीझता भला! मगर उन्हें तो इसी पर गर्व था। इसी के गुमान में रह गए! और हुआ वही जो होना था।
बेढब लाल जी को इस बात का इल्म नहीं था कि नए दौर में नए प्रतिमान स्थापित हो चुके हैं। किसी को रिझाने के लिए अंदर की चीजों की बजाए बाहरी चीजों की जरूरत है। मसलन पर्स का मोटा होना, एक अदद बाइक और कठपुतली बन जाना! बेढब लाल के पास इनमें से कुछ चीजें थीं और कुछ नहीं भी। जो चीजें नहीं थीं उसकी कीमत तो चुकानी ही थी। दूसरी ओर आजकल शाहरुख और शाहिद डिमांड में हैं। सब शाहरुख और शाहिद तो नहीं बन सकते लेकिन उनके जसा होने की एक्टिंग तो कर ही सकते हैं! बेढब लाल एक्टिंग करने में पीछे रह गए! ऐसे में मजनूं बनकर फिरते रहने से कुछ हासिल होने से रहा। सच्चाई यह भी है कि पुरानी किस्म की लैला तो लुप्त हो चुकी हैं !अब भला मिलें भी तो कैसे!
असफलता से आहत मेरे अजीज अब सतर्क हो गए हैं। जलवा देखकर फिसलने के प्रबल विरोधी! हर चमकने वाली चीज को सोना समझने की भूल उन्हें बहुत कुछ सीखा चुकी है।
दिल्ली से छपने वाले हिंदी दैनिक आज समाज में 18 फ़रवरी को प्रकाशित.
सही है कि सीख गये..हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती. अच्छी कथा.
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