Friday, July 17, 2009

बारिश के बिना उफान

समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने के एक कोर्ट के फैसले के बाद चारों ओर बहस और विचारों के नदी-नाले उफनने लगे हैं। बारिश के मौसम में आसमान से आग बरसे या मानसून मुंह फूलाकर कोप भवन में जा बैठा हो, लेकिन बहस और विचारों का मौसम और मानसून से कोई लेना-देना नहीं। ऐसे में एक दिन मैं सहीराम जी के घर पहुंचा। महीनों से उनसे दुआ-सलाम नहीं हुआ था। ड्राइंग रूम में मैंने उन्हें बहस की एक ऐसी ही उफनती नदी में डूबते-उतराते देखा! मुङो देखकर उनके चेहरे पर एक चमक आ गई। मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो!

बैठक में अब तक फैसले की जमकर धुनाई की जा चुकी थी! ठीक उसी तरह जसे धुनिया गद्दे में रूई भरने के पहले करता है। पश्चिमी देशों और उनकी सभ्यता-संस्कृति को भी सहीराम जी की चाय और बिस्कुट की बदौलत मन भर गाली दी जा चुकी थी! लेकिन बैठक में जमे लोगों को अब तक संतुष्टि नहीं मिल पाई थी। जितना वे कोसते उनकी इच्छा और बढ़ती जाती! इसे देखकर मैंने भी आव देखा न ताव और गोता लगाकर ेकहा- आप लोग केकड़े हैं! न टोकरे से खुद बाहर निकलेंगे और न दूसरों को निकलने देंगे। इतना सुनते ही बैठक में शांति छा गई लेकिन सहीराम जी के चेहरे पर मुस्कान की हल्की रेखा उभर गई।

लोगों ने मुङो अजीब सी नजरों से देखा! मैंने अपनी बात जारी रखी और कहा-इसके कई फायदे भी हैं। इस ओर आपका ध्यान क्यों नहीं जाता? देश में पहले ही लड़कियों की कमी है, ऐसे में दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं था। आखिर कोई कब तक मन को समझाता रहता! यह सबसे बेहतर विकल्प है। यही नहीं इससे देश की बुलेट ट्रेन की गति से बढ़ती आबादी पर भी ब्रेक लगेगा! लेकिन परिवार में एक जवान व्यक्ति की संख्या बढ़ जाएगी! इस लिहाज से देखें तो यह फायदे की ही बात है! मेरी बात खत्म होने तक लोगों का मेरी ओर अजीब नजरों से देखना अब घूरने में बदल चुका था।

मैंने महसूस किया कि विचारों की उफनती नदी अब खतरे के निशान से ऊपर बहने लगी है! और मैं धारा के विपरीत तैरता जा रहा हूं। मैंने एक उड़ती हुई निगाह सहीराम जी की ओर डाली। उन्होंने इशारों में मेरी आशंकाओं पर सही की मुहर लगा दी। वहां रुकना अब जायज नहीं था। इसलिए मैंने सरपट बाहर का रुख कर लिया।

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