Monday, August 24, 2009

अब मौसम की परवाह किसे

भारत अब न गांवों का का देश रहा और न ही कृषि प्रधान। शायद यह अविश्वसनीय लगे लेकिन हमारी सरकार ने मानसून की बेरुखी और बढ़ती महंगाई से आजिज होकर यह घोषणा की। इसके साथ ही सरकार ने खाने की चीजों को बाहर से मंगाने की भी घोषणा की है! नई योजना के तहत देश भर में पेट्रोल-डीजल की तरह खाने की चीजों को सरकारी कंपनियों के मार्फत बेचा जाएगा। सरकार ने यह क्रांतिकारी कदम तो उठाया लेकिन उसने देरी कर दी। करीब एक दशक पहले उसे आज वाली घोषणा कर देनी चाहिए थी! चलिए, जब जागे तभी सवेरा!

अपनी सरकार ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया है। वैसे भी अब गांवों में रहता कौन है? सब ने भेड़ों की तरह शहर का रुख कर लिया है। गांवों में तो अब सिर्फ कामचोर और काहिल किस्म के लोग ही बचे हैं, जिनसे खेती-बाड़ी भी नहीं होती! केवल वह सरकारी अनुदान की आस लगाए बैठे रहते हैं! देर से ही सही लेकिन सरकार ने एकदम सटीक फैसला किया है। उन्हें यह पता है कि आसपास चुनाव नहीं होने हैं। इसलिए महंगाई पर नकेल कसने की भी जल्दी नहीं दिखाई। उलट, उन्होंने देश के बारे में वर्षो से चली आ रही मान्यता को एक झटके में ध्वस्त कर दिया। हो सकता है सरकार के लिए यह काम सबसे आसान रहा हो! बेचारे मानसून को भी इससे राहत मिली होगी!

सरकार में बड़े-बड़े अर्थशास्त्री जमे हैं लेकिन वे महंगाई को काबू में नहीं कर सके। एक कृषि प्रधान देश में खाने की चीजें ही सोने-चांदी के भाव में मिल रही हैं। इसलिए सरकार ने अपनी नाकामी उजागर किए बिना एक अनोखा बीच का रास्ता निकाल लिया! अब कोई यह नहीं कह सकेगा कि हमारे यहां फलां-फलां चीजें महंगी हैं। लोग भूख से मर रहे हैं। किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। सरकार के पास मजबूत बहाना है कि चीजें महंगी खरीद के ला रहे हैं तो महंगी बेचेंगे भी। हमारे यहां तो कुछ उपजता ही नहीं!

सरकार खाने की चीजों को बेचने का अधिकार सिर्फ देश के पूर्व और मौजूदा मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और कुछ रिटायर्ड नौकरशाहों को दे तो बेहतर है! इस बात का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए कि उन्हें कोई तकलीफ न हो! उन्हें देश की जनता की सेवा करने बेहतरीन मौका सरकार की ओर उपलब्ध कराना गौरव की बात होगी।

हम सरकार के इस कदम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं! उसने कुछ कदम तो उठाया। अब कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि सरकारें काम नहीं करतीं!

4 comments:

  1. तुम्हारा यह व्यंग्य ह्रदय को छू गया. इस देश में जो भी कदम सरकारें उठातीं हैं, शायद ही दूरदर्शिता पूर्ण और जन-सामान्य के भलाई के लिये होता है. इन खून के प्यासे राजनेताओं और नौकरशाहों को तो भूख से मरते लोगों की हड्डियों को भी छूसने में मज़ा आता है. इनकी दोगली नीतियों का सिर्फ एक ही मकसद होता है, कमाई कमाई और कमाई. अब आयत करेंगे तभी तो घोटाले कर के कमाएंगे. विभिन्न नीतियां बनाकर कामचोरों को तरह तरह के भत्ते देना, आरक्षण, अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के नाम पर के नाम पर वोटों की राजनीति और समाज का बटवारा ही आजादी के बाद इस देश की मुख्या उपलब्धियां है. इस देश में लाला बहादुर शास्त्री जैसे राष्ट्रभक्त प्रधानमन्त्री को जहर देकर मारने की परंपरा है और नरसिम्हाराव जैसे भ्रष्ट प्रधानमंत्रियों को आम माफ़ी का प्रावधान है. इस देश में आजादी के ६० साल बाद भी गोरी चमड़ी वालों और उनकी वस्तुओं से प्रेम करने का चलन है यह बिना सोचे समझे की वह देश के लिया कितना घटक है.

    सभी शिक्षित और प्रबुद्ध लोगों को इस बात पर गहन विचार करना चाहिए और इस देश में एक वैचारिक क्रांति लाने का प्रयत्न करना चाहिए. लेकिन इस देश में मीडिया पर भी राजनीतिज्ञों का दबदबा है और हमारे पत्रकार भाईओं की सरस्वती भी लक्ष्मी के आगे बारम्बार घुटने टेकते नज़र आ जाती है. हमें इस दलदल से देश को निकालने के लिए ठोस प्रयत्न करने होंगे नहीं तो हमारी भी हालत इराक़ और अफगानिस्तान जैसी होने में देर नहीं लगेगी.

    ReplyDelete
  2. वैसे भी अब गांवों में रहता कौन है? सब ने भेड़ों की तरह शहर का रुख कर लिया है। गांवों में तो अब सिर्फ कामचोर और काहिल किस्म के लोग ही बचे हैं, जिनसे खेती-बाड़ी भी नहीं होती! केवल वह सरकारी अनुदान की आस लगाए बैठे रहते हैं!

    Gaon ke prati 'naye' dristikon ko bakhubi samne rakha hai.

    ReplyDelete