Monday, March 2, 2009

मैं और आईआईएमसी- अंतिम


इस बात की आलोचनाओं के बावजूद मुङो आईआईएमसी में न पढ़ पाने का मलाल है। लेकिन पिछले तीन सालों में मैं इस बात से भलीभांति परिचित हो चुका हूं कि सिर्फ संस्थान किसी को सफल पत्रकार नहीं बना सकता। हां, यह बात बिलकुल सही है कि बढ़िया संस्थान अच्छा प्लेटफॉर्म दिलाने में मदद करता है। यहां सारा खेल जुगाड़ का है। यदि जुगाड़ मजबूत है तो अच्छे संस्थान में बढ़िया पैकेज से आपको कोई रोक नहीं सकता। यहां योग्यता द्वितीयक हो जाती है।

इस छोटी सी अवधि में आईआईएमसी से पढ़े कई लोग मिले। लेकिन संस्थान की कहीं अलग छाप नहीं दिखी। इतना जरूर है कि जितने लोग मिले उसमें से अधिकांश आत्ममुग्ध निकले। उनके दिमाग में यह बात हमेशा चलती रहती है कि मैंने अच्छे संस्थान में पढ़ाई की है तो मैं ही बेस्ट हूं। हालांकि यह व्यक्ति विशेष का व्यक्तिगत गुण भी हो सकता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो इनसे बिलकुल अलग हैं। उन्होंने कभी यह नहीं जताया कि उन्होंने कहां से पत्रकारिता की पढ़ाई की है। यहां इस बात का जिक्र करना भी आवश्यक है कि कई ऐसे लोग भी मिले जिनसे मिलकर लगा कि इन्हें कैसे प्रवेश मिल गया। यह बात मेरे समझ से बिलकुल परे थी। ऐसे लोगों से संस्थान की छवि को नुकसान ही पहुंचता है।
एक और वाकया याद आता है। जब मैं दूसरी बार प्रवेश के लिए साक्षात्कार देने गया था। वहां एक उम्मीदवार को-जो कथित तौर पर हस्तरेखाओं की जानकारी रखता था-साक्षात्कार कक्ष से बाहर आने के बाद दोबारा बुलाकर हाथ देखने के एवज में तत्कालीन पाठ्यक्रम संयोजक ने 101 रुपए दक्षिणास्वरूप दिए। बाद में पता चला कि उसे प्रवेश भी मिल गया है। ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं, जिन पर पर्दा पड़ा हुआ है। यह महज एक संयोग भी हो सकता है।
मजबूत जुगाड़ नहीं होने पर बस एक ही रास्ता बचता है। वह है संघर्ष का रास्ता। यह विकल्प कांटों भरा तो है लेकिन इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। मैं बहुत सारे ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने संपादक के नाम चिट्ठी लिखकर पत्रकार बनने की राह तय की। इसमें आज के कई नामी गिरामी पत्रकार शामिल हैं।

4 comments:

  1. प्रिय अखिलेश,
    आईआईएमसी के बारे में तुम्हारी कुछ बातों से मैं भी इत्तेफ़ाक रखता हूं। ये भी सत्य है कि कुछ ऐसे छात्रों को भी प्रवेश मिल जाता है, जो शायद डिजर्व नहीं करते। लेकिन इसका कतई मतलब नहीं कि IIMC के छात्रों नें अपनी अलग पहचान नहीं बनाई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुम स्वयं हो, जिसने तीन-तीन बार प्रवेश परीक्षा दिया। होना न होना....ये अलग बात है, लेकिन अगर तुम सिर्फ़ इस वजह से IIMC के छात्रों को कम आंक रहे हो कि तुम्हारा एडमिशन नहीं हो पाया, तब तो ये ग़लत है। हां, कुछ छात्र आत्ममुग्ध होते हैं, लेकिन ये बात सब के लिए सच नहीं है। और ये 101 रुपए वाली बात कुछ हजम नहीं हो पा रही है। कोर्स डायरेक्टर या तो धुलिया जी रहे होंगे या राघवचारी....या फिर माथुर साहब....मैंने इन तीनों के साथ करीब साल भर बिताए हैं। मेरा अनुभव तुम्हारी बातों को सिरे से खारिज़ करता है। हां कुछ कमियां हैं, लेकिन वो सब जगह हैं....वो फिर आईआईएम हो या सिविल सर्विसेज....इसका मतलब ये कतई नहीं कि ये संस्थान खराब हैं..। हम ये क्यों भूल जाते हैं, कि इसी संस्था ने कई दिग्गज भी दिए हैं। क्या तुम्हारी बातें कुछ कुंठाओं को व्यक्त नहीं कर रहीं हैं। फिर से सोचो....। जहां तक आत्ममुग्धता का सवाल है, तो इसमें मुझे तब तक कोई बुराई नहीं दिखती, जबतक की आप दूसरों को भी उचित सम्मान और स्पेस दें..।

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  2. आप मेरी कुछ बातों से सहमत होते हुए भी इसे कुंठा में लिखा बता रहे हैं. ये कुछ अटपटा लगा. जहाँ तक दक्षिणा वाली बात है वह आँखों देखी नहीं है.

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  3. Tumhari pratibha aur vyaktitva se achchi tarah parichit hone ke aadhar par main yah kah sakta hoon ki agar tum iimc me ek seat deserve nahin karte to shayad koi aur bhi nahin karta hai.

    Tumne jo likha hai wo ek kunthit vyakti ka pralaap nahin varan uske mul me hamare desh me pratibhaon ke sath lagatar ho rahe khilwad se upji hatasha hai.

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  4. are bhai ab to rag-e-iimc band karo. jeevan me bahut kuch piche chut jata hai.

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