पुरस्कार अक्सर जोड़-तोड़ में माहिर लोगों को मिला करता है। ओबामा को नोबेल पुरस्कार से नाजे जाने के बाद यह साबित भी हो गया। इसीलिए मुङो उतनी हैरत नहीं हुई जितनी मेरे दोस्तों को हुई। ये जरूर हैरान करने वाली बात है कि ओबामा ने सिर्फ कुछ ही महीने में पुरस्कार हथियाने का प्रबंध कर लिया! इससे यह बात जगजाहिर हो गई कि अमेरिकी राष्ट्रपति बड़े ही अच्छे मैनेजर हैं! महात्मा गांधी जिंदगी भर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे लेकिन उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं मिल सका।
दूसरी ओर, ओबामा को शांति का पुरस्कार देने की घोषणा होने के बाद से दुनिया को जानने-समझने वालों की बीच गहरा मतभेद उभर आया है। कुछ जानकार इसे दुनिया में शांति स्थापित करने की नोबेल फाउंडेशन की कूटनीति मानते हैं! इसे दुनिया के सबसे धनी, मजबूत और चालाक देश को उसी के हथियार से परास्त करने की कोशिश ही मानी जाएगी। इससे अलग विचार रखने वालों का तर्क है कि जब विश्व में इसी तरह से शांति कायम करनी थी तो खाड़ी युद्ध के पहले तनाव वाले समय में तथा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के तुरंत बाद बुश सीनियर और जूनियर दोनों को शांति का नोबेल पुरस्कार दे दिया जाता। कम से कम हजारों इराकी, अफगानी और अमेरिका तथा उसके मित्र देशों के सैनिकों की जानें तो बच जातीं! अमेरिका और धनी हो जाता!
बिल्कुल इसी तर्ज पर यदि शांति का यह पुरस्कार पहले और दूसरे विश्व युद्ध से पहले संयुक्त रूप से लड़ाई करने वाले दोनों गुटों को दिया जाता तो ये लड़ाइयां न होतीं! लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो अच्छा ही हुआ। अगर ऐसा होता तो विश्व इतिहास में से एक्शन का महत्वपूर्ण सीन ही गायब हो जाता। हमें बचपन में इतिहास पढ़ने में मजा भी नहीं आता! और ओबामा की इतनी प्रासंगिकता नहीं रहती जितनी आज है! ये क्या कम है कि सिर्फ गांधी जी के साथ डिनर की इच्छा व्यक्त करने भर से ही उन्हें शांति के पुरोधा होने का तमगा दे दिया जाए!
यदि अगले साल ईरान और उत्तर कोरिया के राष्ट्राध्यक्षों को शांति का नोबेल पुरस्कार दे दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए! शांति तो युद्घ के बाद ही आती है, इसलिए युद्ध की तैयारी करने वालों को तो शांति पुरस्कार मिलना ही चाहिए!
Bhai bahut khub class li hai.Lage raho.
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