जमाना कहां से कहां पहुंच गया है। कभी एक जगह से दूसरी जगह बात पहुंचाने में महीनों लगते थे। संवाद पहुंचाने का काम पलक झपकते ही पूरा हो जा रहा है। कबूतर और संवदिया तो अब किताबों तक सिमट कर रह गए हैं। चिट्ठी लिखने वालों को कोई पूछता तक नहीं। सूचना क्रांति के सिपाहियों ने न जाने कितने आजमाये हुए तरीकों को धीरे-धीरे दरकिनार कर दिया है। लेकिन सूचना क्रांति के सिपाहियों को इतने से चैन नहीं। उन्होंने बड़े-बड़ों को पानी पिलाना भी शुरू कर दिया है। जो जितना अधिक उस पर निर्भर है उसे उतना ही बड़ा नुकसान का उपहार मिल रहा है। काश! इस चाल को कोई समझ पाता।
शशि थरूर और ललित मोदी ने आखिर किया ही क्या था! बस यही न कि ट्वीट-ट्वीट खेलने लगे थे। बेचारे! पहले थरूर की कुर्सी गई बाद में मोदी भी आईपीएल के कमिश्नर नहीं रहे। दोनों को करीब-करीब एकसमान दंड मिला। मिले भी क्यों न दोनों एक ही खेल में जो शामिल थे! दुनिया में इतने खेल हैं इन्होंने सब छोड़ इसे ही क्यों चुना! अब उन्हें भी पछतावा हो रहा होगा कि यही खेल क्यों शुरू किया। यह भी लग रहा होगा कि शुरू किया तो किया इसका अंत बढ़िया क्यों नहीं हुआ। हां, ये जरूर है कि इनके परिणाम से दूसरे होशियार खिलाड़ी सबक लेंगे।
कई खिलाड़ी जिन्होंने अब तक इस खेल में हिस्सा नहीं लिया है वे खुद को फौलादी किस्मत वाला मान रहे होंगे। क्या पता मैदान में उतरने के बाद उनका भी हश्र थरूर-मोदी की तरह होता! या हो सकता था कि परिणाम इससे भी कड़वा हो। लेकिन ये तो बिल्कुल नकारात्मक सोच हो गई। गुरुलोग कहते हैं कि काम का परिणाम बहुत हद तक सोच के तरीके पर निर्भर होता है। इसलिए यह जोड़ देना ठीक रहेगा कि ये भी हो सकता था कि उनका फौलादी किस्मत उन्हें विजेता ही बना देता। इतना भर लिख देने से सारी चीजें संतुलित हो गईं! वैसे विजेता बनने की चाह रखना कोई गुनाह भी नहीं। इससे खेल से दूर रहे खिलाड़ियों को बल मिलेगा और वे किस्मत आजमाने मैदान में उतर भी सकते हैं!
रही बात छोटे लोगों की तो वे बड़ों लोगों के ट्वीट-ट्वीट वाले खेल से दूर ही रहें तो बेहतर है। जब ट्वीट के खेल ने बड़ों का यह हश्र किया तो छोटों का क्या होगा। इसका अनुमान लगाना तनिक भी मुश्किल नहीं। छोटे लोग छोटी जगहों पर छोटे-छोटे खेल ही खेलें! उनकी भलाई इसी में है।
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