अमेरिका दुनिया के कोने-कोने और हर चीज के लिए चिंतित रहता है। यह उसकी आदत है। दूसरे देशों के लोगों के बारे में सोचने उन्हें सुधारने के चक्कर में वह अपने ही देश के लोगों की नहीं सुनता! उसकी आदत धीरे-धीरे बीमारी का रूप लेती जा रही है। अमेरिका में सरकार जरूर बदलती है लेकिन प्रशासकों की सोच नहीं बदलती। कुल मिलाकर उसकी स्थिति हमेशा 'ईष्यालु पड़ोसी' जैसी रहती है। भारतीयों के बारे में उसका यह रवैया कई बार सामने आ चुका है। लेकिन हमारे प्रशासकों को अमेरिकी वंदना से फुर्सत कहां!
कभी-कभी तो अमेरिका अपनी हदें भी भूल जाता है। हमसे जल-भून अमेरिका हमारे खिलाफ बयानबाजी करता है। हमारा खाना, गाड़ी खरीदना या फिर हमारे सॉफ्टवेयर इंजीनियर उसे कुछ भी पसंद नहीं। खाना अधिक हम खाते हैं लेकिन बदहजमी और खट्टे डकार का शिकार अमेरिका हो जाता है। अमेरिका में अनाज की कमी हो जाती है। वहां लोगों को खाने को नहीं मिलता! सरकार की चूलें हिलने लगती हैं। जनता की नाराजगी से बचने के लिए हताशा में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश हमें कोसने लगते हैं!
ऐसा ही कुछ कार की खरीदारी को लेकर भी है। भारत और चीन में कारों की खपत से बराक ओबामा परेशान हो गए हैं। इसे वे पेट्रोल-डीजल की खपत बढ़ जाने का कारण मानते हैं। उन्हें पहली बार पेट्रोल-डीजल की कमी की आशंका से बेचैनी हो रही है! शायद ओबामा को याद नहीं कि जॉर्ज बुश ने जाते-जाते उन्हें उपहार स्वरूप जो इराकी तेल कुओं की सौगात दी है वह अब भी सुरक्षित है! इसका सदुपयोग कब किया जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका ने इराकी तेल कुओं को खाली कर दिया हो! ओबामा इतना भी मूर्ख नहीं हो सकते। जिन तेल कुओं को पाने के लिए बाप-बेटे दोनों ने सैकड़ों सैनिकों की जान की बाजी लगा दी हो उसे पानी की तरह नहीं बहाया जाना चाहिए।
अक्सर गलतियां कई सबक दे जाती हैं। लेकिन अमेरिका को लगता ही नहीं कि उसने कोई गलती की है। चाहे वियतनाम युद्ध हो, सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान के लड़ाकों को मदद या इराक में उसकी कारगुजारी। इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ रहा है। एक बार अमेरिका पर हमला हो चुका है और कई हमले के प्रयास विफल किए जा चुके हैं। इन सबके पीछे अमेरिकी मदद से उपजे तत्व ही हैं। एक के बाद एक कई देशों में सैनिक अभियान और लड़ाकों को दाना-पानी देते रहने की उसकी सनक सारी कहानी कहती है। लेकिन वह क्यों संभले वह तो युद्ध करके शांति का पुरस्कार जीत चुका है!
सही कहा.....बढ़िया
ReplyDeletevisit:www.jugaali.blogspot.com
अखिलेश जी ,
ReplyDeleteअमरीका अंकल सैम है ,यानि दुनिया के स्वयंभू चचा ठेकेदार जी , उनको त बदहजमी होना स्वाभाविक ही है । और बेचारे का मर्ज अब तो लाईलाज भी हो चुका है उनकी हालत पर तरस करना चाहिए । सामयिक और सार्थक
Shah Nawaz said...
ReplyDeleteअंजुम जी, यह कोई नई बात नहीं है, दर-असल, यही घिनौनी राजनीति का सच है. जहाँ तक नकारात्मक वोट की बात है, तो यह पोल खोलती है इन तथाकथित राष्ट्रवादियों की. अभी अगर यही पोस्ट किसी और मुस्लिम महिमा लेखक ने मुसलमानों के विरोध में बनाई होती, तब आप देखती की कमेंट्स की बाड़ आजाती. इस सब के बाद भी यह लोग अपने आप को सही साबित करने में लगे रहते हैं. दरअसल इस तालाब की कोई मछली नहीं बल्कि पूरा तालाब ही गन्दा है. सब के सब मुखौटा लगा कर बैठे हुए हैं. बाहर से दूसरों को हमेशा गलत ठहराते हैं, और अन्दर से सब के सब खुद गलत हैं.
'दंगे के धंधे की कंपनी' श्रीराम सेना पैसे पर कराती है हिंसा?
http://anjumsheikh.blogspot.com
और हां फ़ोंट को थोडा सा बढा दें बैकग्राऊंड गहरा है इसलिए छोटे फ़ोंट से कठिनाई होती है ।
ReplyDeleteअखिलेश मैं तुम शायद भूल गए हो कि दुनिया के 80 फीसदी संसाधनों का उपभोग केवल 20 फीसदी संपन्न लोग करते हैं, इसमें अमेरिकियों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। जाहिर है शेष 80 फीसदी लोग उपभोग बढ़ाएंगे तो अमेरिका जैसे अमीर देशों को परेशानी होगी। हमारे गांव का एक अमीर व्यक्ति वहां मोटरसाइकिलों और पक्के मकानों की बढ़ती तादाद देखकर कहा करते हैं कि लोगों को समझ नहीं है। भला गांव में गाडिय़ों और शानदार मकानों की क्या जरूरत। लेकिन उनके निजी परिवार के तमाम सदस्यों के पास अलग-अलग वाहन हैं और उनका मकान तकरीबन 25 लाख रुपये का होगा, जो गांव में ही है। तो उनकी परेशानी क्या है। वजह साफ है। उनके मकान के पास-पड़ोस में अन्य बड़े मकान बनते जा रहे हैं, जिससे उनका मकान दूर से नहीं दिखता। अन्य मकानों के पीछे ढक जाता है। यह तो स्वभाविक ही है कि संपन्नता का असली आनंद अभावग्रस्त लोगों के बीच ही है। तमाम लोग हवाई यात्राएं करने लगें तो वहां भी भीड़ बढ़ जाएगी। चिंता दरअसल भीड़ बढऩे की ही है। Bhimsen
ReplyDelete