Wednesday, May 26, 2010

आखिर कुछ तो बदले!

अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। यह शासन जनता के लिए होता है। लेकिन बेचारी जनता ही सरकारी नीतियों से जन्मे बोझों के नीचे दबी है! मौज है तो जनता के प्रतिनिधियों की। इसलिए लोकतंत्र की परिभाषा में थोड़ा बदलाव कर उसमें जनता की जगह प्रशासक जोड़ देना चाहिए। लोकतंत्र यानी प्रशासकों का तंत्र!

सरकार बदलती रहती है, लेकिन जनता की नियति में रत्ती भर भी रद्दोबदल शायद ही होता हो। हर साल सरकार अपना रिपोर्ट कार्ड बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है। विकास के आंकड़े बदलते रहते हैं और ऊपर ही ऊपर भागते रहते हैं, जो चीज नहीं बदलती वह है जनता की समस्या। समस्या बदलने की बजाय बढ़ती रहती है। अपने प्रधानमंत्री जी बड़े अर्थशास्त्री हैं। विडंबना है कि उन्हीं के शासनकाल में जनता महंगाई के बोझ तले पिस रही है। वे महंगाई को रोक पाने में असफल रहने के कारण पद नहीं छोड़ सकते। लेकिन किसी 'युवा' के लिए पद जरूर छोड़ने को तैयार हैं। वे रिटायर होने से पहले 'अधूरा' काम पूरा करना चाहते हैं। बहुतों को यह बात समझ में नहीं आई कि 'युवा' के लिए पद छोड़ने का बाद उनका 'अधूरा' काम पूरा कैसे होगा? शायद प्रधानमंत्री का अधूरा काम 'युवा' के हाथ में कमान देने से ही पूरा होता हो। वे यही 'अधूरा' काम पूरा करना चाहते हैं।

सरकार नक्सल समस्या का कोई कारगर उपाय नहीं ढूढ़ पाई है। सुरक्षा बलों के साथ-साथ नक्सली अब आम लोगों को भी निशान बनाने लगे हैं। सरकार इस समस्या से लड़ने पर आपस में ही भिड़ी और बंटी हुई है। देश में किसानों की आत्महत्या, गरीबों का स्वास्थ्य, पानी और बिजली कोई मसला नहीं है। हमारी सरकार की नजरों में इन सभी की स्थिति बेहतर है! कई पश्चिमी देशों से भी अच्छी! या फिर सरकार ने इन सभी क्षेत्रों की तुलना कभी की ही न हो। यह सांसदों के वेतन का मामला तो है नहीं कि तुलना की जाए कि ब्रिटेन के सांसदों के कितना कम भारतीय सांसद वेतन पाते हैं। अगर मसला है तो वह सिर्फ कुर्सी है। कुर्सी कब छोड़नी है। कुर्सी पर कौन बैठेगा। किसके लिए कुर्सी छोड़नी है। यही सब बड़े लोकतंत्र की निशानी बन गई है।
अपने देश में सरकार के कामकाज का मूल्यांकन का आधार जनता नहीं है। बल्कि कुछ और ही है। तभी जनता की परेशानियों को सरकार तवज्जो नहीं देती! इसलिए लोकतंत्र की परिभाषा में बदलाव जरूरी है। आखिर कुछ तो बदले!

3 comments:

  1. आपने अच्‍छी बात लिखी है मैरा यह मानना है कि जब तक बच्‍चा रोता नहीं है तब तक मॉ को पता नहीं चलता की बच्‍चा भूखा है।
    आज हम अपने अधिकार के लिए किससे मांग करते है। हमें कुछ मिला नहीं तो नेताओं को कोसने लगे प्रशासन को दोषी ठहराने लगे।
    इस देश में जो व्‍यवस्‍था चल रही है वह हमारी ही देन है और यहां के लोग जब चाहें इस व्‍यवस्‍था को बदल सकते है ।
    भले प्रधानमंत्री अर्थशास्‍त्री हो पर सार शास्‍त्र जनता का है वह जो चाहती है वही अर्थशास्‍त्र का नियम बन जाता है

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  2. लोकतंत्र की अवधारणा और हमारे देश के राजनीतिक तानेबाने में कोई खास अंतर्विरोध नहीं है। वैसे भी हमें जिन देशों में इसी अवधारणा के तहत बेहतर शासन प्रणाली दिखाई दे रही है वहां का लोकतंत्र काफी पुराना है और उनमें परिपक्वता आ गई है। हमारा लोकतंत्र फिलहाल नया है और बड़ा भी, इसीलिए इसमें कई खामियां हैं। रही बात प्रशासकों की, तो उनके रहनुमा हमारे ही प्रतिनिधी होते हैं। मतलब यह कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से उनकी लगाम हमारे ही हाथों में होती है। दिक्कत यह है कि हमें अक्सर इसका अंदाजा नहीं होता या फिर हम अपनी-अपनी जिम्मेदारी को सही तरीके से नहीं निभाते। आम जनमानस का व्यवहार लोकतंत्र की नींव होती है, यदि वही कमजोर हो तो मजबूत इमारत की कल्पना कैसे की जा सकती है।
    और हां तुमने प्रधानमंत्री के अर्थशास्त्री होने का जिक्र किया है। अरे भाई वे मंजे हुए अर्थशास्त्री हैं इसीलिए तो महंगाई बढ़ रही है। दरअसल महंगाई बढऩे से आर्थिक विकास की गति को रफ्तार मिलती है। और हां एक बात और स्पष्टï करना चाहुंगा- अर्थशास्त्र और जनकल्याण एक दूसरे के विरोधी होते हैं, इसलिए एक गुजारिश है कि अर्थशास्त्री मनमोहन को बख्श दो। भीमसेन

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